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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद रुपक काव्य है, जिसमें विवेक नायक तथा मोह प्रतिनायक है। मोह और विवेक में परस्पर युद्ध होता है। विवेक विजयी होता है। रचना ११८ दोहा चौपाई छन्दों में है। प्रारम्भ में कवि ने अपने पूर्ववर्ती तीन कवियों -- मल्ल, लालदास और नल-द्वारा लिखे गए 'मोह विवेक युद्ध' का संकेत किया है : वपु में वणि वनारसी विवेक मोह की सैन । ताहि सुणत श्रोता सवै, मन में मानहिं चैन ।।१।। पूरव भए सुकवि मल्ह, लालदास गोपाल । मोह विवेक किएसु तिन्हि, वाणी वचन रसाल ॥२।। नीनि तीनहु ग्रन्थनि महा, सुलप सुलप सधि देख । सारभूत संक्षेप अरु, सोधि लेत हौं सेप । ३॥ इस रचना के बनारसीवान कृत होने में सन्देह है यद्यपि श्री अगरचन्द नाहटा इसको बनारसीदास रचित ही मानते हैं। किन्तु इसकी भाषा इतनी शिथिल तथा बनारसीदास की अन्य रचनाओं से भिन्न है कि इसको श्रेष्ठ कवि की रचना मानने का साहस ही नहीं होता। यदि यह कवि की प्रारम्भिक रचना होती तो 'नवरस' के समान इसका उल्लेख भी 'अर्धकथानक' में होता। श्री नाथराम जी प्रेमी भी काफी विचार के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि इसके "कर्ता कोई दूसरे ही बनारमीदास मालूम होते हैं। श्री रवीन्द्र कुमार जैन को गोपाल कवि कृत 'मोह विवेकयुद्ध' की एक हस्तलिखित प्रति जयपुर के दादू महाविद्यालय से प्राप्त हुई है। इस प्रति को देखने से पता चलता है कि इसमें और कनारमीनार कृत 'मोह विवेक यूद्ध' में काफी समानता है। दोनों में १५-२० दोहा चौपाइयों को छोड़कर अक्षरशः साम्य है। केवल गोपाल के स्थान पर बनारसी' कर दिया गया है। गोपाल दाद् के प्रधान शिप्यों में से थे। इनके : ग्रन्थ पाए जाते हैं, जिनमें 'मोह विवेक संवाद' भी है। इनका रचनानन मं० १६५० माना जाता है। बनारसीदास के 'मोह विवेक युद्ध' में उल्लिखित दूसरे कवि 'लालदास' हैं। इनके 'मोह विवेक युद्ध' की एक हस्तलिखित प्रति अभय जैन ग्रन्यालय, वीकानेर में सुरक्षित है। इसका रचना काल १८वीं शताब्दी के लगभग है। इससे स्पष्ट है कि गोपाल, बनारसीदास के समकालीन और लालदास के परवर्ती थे। अतएव 'मोह विवेक युद्ध' बनारसीदास की रचना नहीं हो सकती। यह किसी दूसरे वनारसी की कति है अथवा किसो अन्य व्यक्ति के द्वारा गोपाल को रचना में थोड़ा-सा परिवर्तन करके बनारसीदाम के प्रति श्रद्धा का प्रदर्शन किया गया है। १. देखिए, वीर वाणी, वर्ष ६, अंक ३२४ ॥ २. अधकथानक की भूमिका, पृ० ३२१ ३. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थान का पिंगल साहित्य, पृ० १८८। ४. श्री अगरचन्द नाहटा, राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज (चतुर्थ भाग) पृ० ३८।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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