SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्याय इस में एकोत्तरे, शब्द पर मतभेद है। श्री कामता प्रसाद जैन और राजकुमार जैन इसका अर्थ १३०९ लगाते हैं, जबकि बनारसी विलाम' के सम्पादक श्री कस्तुरचन्द्र कासलीवाल इसका रचनाकाल मं० १७७१ मानते हैं । 'एकोनर' का अर्थ 'एकहत्तर ही समीचीन प्रतीत होता है न कि एक उत्तर अर्थात् समहसी के एक वर्ष उत्तर या पश्चात् | ऐसा प्रतीत होता है कि बनारसीदान की मृत्यु के पश्चात् ही यह संग्रह तैयार किया गया होगा । इसीलिए उनकी अनेक रचनाएँ संग्रहकर्ता को प्राप्त भी नहीं हो नकीं, क्योंकि 'इनके सिवाय तीन नवीन पदों की खोज श्रद्धेय नाथूराम जो प्रेमी ने की है तथा अभी कवि के दो नवीन पद जयपुर के पाटोदी के मन्दिर के शास्त्र भाण्डार की सूची बनाते हुए एक गुटके में हमें ( कासलीवाल जी को मिले हैं। इसके अतिरिक्त बनारसीदास की एक अन्य रचना 'माझा जयपुर के बधीचन्द के मन्दिर के शास्त्र भाण्डार में मिली है। ' मोह विवेक युद्ध' नामक एक अन्य रचना बनारसीवान के नाम से प्रसिद्ध है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यदि जगजीवन ने सं० १३०१ में बनारसीदाम के समय में ही यह संग्रह तैयार किया होता तो उनकी कुछ छोटी-छोटी रचनाएं छूट न जातीं । जगजीवन बनारसीदास के कुछ परवतीं भी प्रतीत होते हैं । कारण, यदि वे बनारसीदास के समकालीन और मित्र होते तो 'अर्धकथानक' में उनका नाम भी गिनाया गया होता । (६) माझा : बनारसीदास की एक छोटी रचना है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति बधीचन्द के मन्दिर ( जयपुर ) से प्राप्त हुई है । इसमें १३ पद । सामान्यतया जीवात्मा को उपदेश दिया गया है। माता, पिता, सुत, नारी, आदि सांसारिक सम्बन्धों को अवास्तविक श्रीर क्षणिक बताकर उनमें न फँसने का निर्देश दिया गया है। पहला पद इस प्रकार है : 3 माया मोह के तू मतवाला, तू विषया विषधारी । रागदोष पायौ वस ठग्यौ, चार कपायन मारी ॥ कुरंग कुटुम्ब दीया ही पायो, मात तात सुत नारी । ور कहत दास वनारसी, अलप सुख कारने तौ नर अब बाजी हारी ॥१॥ (६) मोह विवेक युद्ध : यह रचना बनारसीदास के नाम से प्रसिद्ध है | इसकी कई हस्तलिखित प्रतियाँ जयपुर के बड़े मन्दिर के शास्त्र भाण्डार में सुरक्षित हैं तथा एक प्रति श्री नाथूराम प्रेमी को भी प्राप्त हुई थी । पुस्तक 'वीर पुस्तक भाण्डार' जयपुर से प्रकाशित भी हो चुकी है । यह एक १. बनारसी विलास की भूमिका, पृ० ३५ । २. देखिए : श्री कस्तूरचन्द कासलीवाल द्वारा सम्पादित 'राजस्थान के जैन शास्त्र भाण्डारों की ग्रन्थ सूची (भाग ३) की भूमिका पृ० १७ । ३. बधीचन्द के मन्दिर ( जयपुर ) की हस्तलिखित प्रति से । ४. वीर पुस्तक भाण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर से बीर नि० सं० २४८१ में प्रकाशित ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy