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________________ तृतीय अध्याय में तीन व्यनियों-जोइन्दु, देवमेन और लक्ष्मीचन्द्र-का नाम मिलता है। श्री ए. एन० उपाध्ये ने परमात्म-प्रकाग की भूमिका में इस ग्रन्थ के कर्ता पर विस्तार से विचार करके लक्ष्मीचन्द्र को इमका रचयिता मिद्ध किया है। लेकिन डा० हीरालाल जैन ने देवसेन को मात्रययनदेह का कर्ता स्वीकार किया है और इस ग्रन्थ का सम्पादन करके कारंजा जैन मिरोज़ (वरार) से प्रकाशित किया है। 'दोहाण्णवेहा के प्रकाश में ग्राने में इतना तो स्पष्ट ही हो गया है कि दसवीं-ग्यारहीं शती में लक्ष्मीचन्द्र नामक एक कवि विद्यमान अवश्य थे, श्रावकाचार की रचना उन्होंन की हो या न की हो। दोहाणुपेहा' में ४७ दोहा छन्द हैं। प्रारम्भ में सिद्धों की वन्दना है। इसके पश्चात आस्रव, सँवर. निर्जरा आदि का वर्णन है। मिथ्यात्व ही यात्रव है। आस्रव का निरोध ही 'सँवर' है। यह संवर ही निर्जरा का और अनुक्रम से मोक्ष का कारण है। जब प्रात्मा स्वयं या गुरू उपदेश से आत्मा अनात्मा का अन्तर समझ लेता है तो सम्यक ज्ञान की स्थिति आती है। कवि कहता है कि संवर' की स्थिति में व्यक्ति आत्मा अनात्मा को जान लेता है और उसमें स्व-पर-विवेक-शक्ति उत्पन्न हो जाती है। पून: वह परभाव का परित्याग करके 'सहजानन्द' का अनुभव करने लगता है, यही 'निर्जरा' की अवस्था है : 'जो परियाइणं अप्प परु, जो परभाउ चएइ । सो संवर जाणेबि तुहुँ, जिणवर एम भणेइ ॥१।। सहजाणंद परिट्ठियउं, जो परभाव ण विति । ते सुहु असुहु, वि णिज्जरहिं, जिणवर एम भणंति ।।२१|| मोक्ष के लिए अथवा परमात्मा की प्राप्ति के लिए मन्दिर, तीर्थाटन, भ्रमण आदि की आवश्यकता नहीं। परमात्मा का आवास तो देहरूपी देवालय में ही है। अतएव राग-द्वेष आदि का परित्याग कर, प्रात्मा का प्रात्मा से स्मरण करना चाहिए। यही सिव-सिद्धि का एक मात्र उपाय है : 'सोहं सोह जि हां, पुणु पुणु अप्पु मुरणेइ। मोक्खह कारणि जोइण, अण्णु म सो चितेइ ॥३५॥ हत्थ अहुट्ठ जु देवलि, तहि सिब संतु मुणेइ । मढ़ा देवलि देव णवि, भुल्ल उं काई भमेइ ॥३८।। राग-द्वेप से मुक्त होकर और मन, वाणी, काया से गुद्ध होकर जो प्रात्मा का ध्यान करते हैं, उनको निश्चय ही सिद्धि प्राप्त होती है और वे 'सहजावस्था' को प्राप्त होते हैं : १. "So, in conclusion, I have to say that the author of this Sravakacara, in the light of available material and on the authority of Srutsagara's statement is Acharya Laksmichandra" ( Introduction of P. Prakasa, Page 61 ) २. तुलनीय-हत्य अहुई देवली, वाल हं णा हि पवेमु । संतु गिजणु तहिं बसइ. णिम्मटु होइ गवेमु ||१४|| (मुनि रामसिंह-पाहुड़ दोहा, पृ०२८)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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