SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद Ar गई है. बायाचार का खण्डन किया गया है. गुरू के महत्व को स्वीकार किया गया है और परमसमाधि रूपी सरोवर में स्नान के द्वारा भव-मल नष्ट करके यात्मा को परमानन्द की अनुभति का उपाय बताया गया है। 'पाणंदा' की भाषा भी किस प्रकार ‘परमात्मप्रकाश', 'योगसार' और 'दोहापाहुड़' से मिलती है, यह उपर्युक्त दोहों से स्पष्ट है। श्री ए० एन० उपाध्ये ने योगीन्दु मुनि को छठी शताब्दी का कवि माना है। 'पाणंदा' को १३ वी १४ वीं शती की रचना मानने से दोनों में सात-पाठ सौ वर्षों का अन्तर पड़ जाता है। यह सम्भव नहीं है कि जन भाषा या देशी भाषा का स्वरूप इस दीर्घ अवधि तक एक ही प्रकार का रहा हो। भाषा बहता नीर है। समय के साथ उसमें परिवर्तन होता रहता है। अतएव मेरा अनुमान है कि इन कवियों के आविर्भाव काल में अधिक शताब्दियों का अन्तर नहीं रहा होगा। ___ मैने योगीन्दु मुनि को आठवीं-नवीं शताब्दी का कवि माना है और मुनि गमसिंह को ११ वीं शताब्दी का। मेरा अनुमान है कि 'प्रानन्दतिलक' इनके अधिक परवर्ती नहीं होंगे। अधिक से अधिक हम उनको १२ वीं शताब्दी तक ले आ सकते है। बहुत सम्भव है कि वे मुनि रामसिंह के समकालीन रहे हों। (६) लक्ष्मीचन्द्र मामेर शास्त्र भाण्डार में एक नई कृति 'दोहाणुपेहा' या दोहानुप्रेक्षा प्राप्त हई है। प्रति में इसके कर्ता 'लक्ष्मीचन्द्र' बताए गए हैं। श्री परमानन्द जैन शास्त्री ने अपने लेख 'अपभ्रंश भाषा के अप्रकाशित कुछ ग्रन्थ' में भी दोहानुप्रेक्षा के रचयिता 'लक्ष्मीचन्द्र' का ही उल्लेख किया है। यद्यपि मूल रचना में लक्ष्मीचन्द्र का नाम कहीं पर भी नहीं आया है। कवि ने स्थान-स्थान पर 'जिणवर एम भणेइ' का उल्लेख अवश्य किया है। दो दोहों (दो० नं० ४२ और ४७) में णाणी बोल्लहिं साहु' का भी प्रयोग हुया है। इससे सन्देह होता है कि कहीं इसके कर्ता 'साहु' नामक कोई कवि तो नहीं हैं। जैन हितैषी (अंक ५, ६) में प्रकाशित 'दिगम्बर जैन ग्रन्थ कर्ताओं की सूची' में एक लक्ष्मीचन्द्र का नाम आया है। ये अग्रवाल जाति के थे और सं० १०३३ में विद्यमान थे। इनकी एक रचना 'श्रावकाचार' या 'दोहाछन्दोबद्ध' का भी उल्लेख किया गया है। यदि यही लक्ष्मीचन्द्र 'दोहाण पेहा' के कर्ता हैं तो इनका आविर्भावकाल वि० की ११वीं शताब्दी सिद्ध हो जाता है। नौकार श्रावकाचार या सावयधम्मदोहा के कर्ता के सम्बन्ध में काफी विवाद रहा है। इसकी प्राप्त भिन्न-भिन्न हस्तलिखित प्रतियों में कर्ता के रूप १. अनेकान, वर्ष १२, किरण ०६ (फरवरी, १६५४) पृ० २६६ । २. जैनहितैषी, अंक ५, ६ (वीर नि० सं० २४३६) पृ०५५।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy