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________________ तृतीय अध्याय 'परमात्म प्रकाग' में ठीक इसी प्रकार से निरंजन' के स्वरूप का वर्णन मिलता है। श्री योगोन्दु मनि कहते हैं कि जिमत. कोई वर्ण नहीं, गंध नहीं, रस नहीं, शब्द नहीं, स्पर्श नहीं, जिसका जन्म मरण नहीं होता है, उसी का नाम निरंजन है : 'जासु ण वणण ण गध रसु, जासु ण सद्द ण फामु। जासु ण जम्मणु मरणु ण विणा गिरंजणु तासु ॥१६॥ (परम०, प्र० महा०, पृ०२७) अानन्दतिलक बायाचार का विरोध करते हुए कहते हैं कि व्रत, तप, संयम, शील आदि आचार निरर्थक हैं। परम तत्व के ज्ञान के बिना मनुप्य, वाह्याडम्बर करता हुआ भी संसार में चक्कर लगाया करता है : 'बउ तउ संजमु सीलु गुण सह्य महव्यय भारु । एकण जाणई परम कुल, आणंदा, भमीयइ बहु संसारु ।। _ 'योगसार' नामक दूसरे ग्रन्थ में योगीन्दु मुनि ने इन्हीं गब्दों में बाह्याचार की व्यर्थता पर अपना मत व्यक्त किया है। उनका कहना है कि ब्रत, तप, संयम, आदि से व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता. जब तक कि एक परम शुद्ध पवित्र भाव का ज्ञान नहीं होता : 'वय तव संजम मूल गुण मूढह मोक्ख ण वुत्त । जाव ण जाणइ इक्क पर सुद्धउ भाउ पवित्तु ॥२९॥ (योगसार, पृ० ३७७) मध्यकाल के प्रत्येक संत ने चित्त द्धि पर जोर दिया है। प्रायः प्रत्येक साधक ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि जब तक मन मैला रहता है, चिल अशुद्ध और विकार युक्त रहता है, तब तक बाह्य शुद्धि से कोई लाभ नहीं होता है। आणंदा का कवि भी कहता है कि मूर्ख जन स्नान करते हैं, वाह्य शरीर को शुद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु आभ्यंतर चित्त पापमय रहता है। चित्त का विकार वाह्य स्नान से के दूर हो सकता है ? 'भिंतरि भरिउ पाउमलु मढ़ा करहि सणहाणु । जो मल लाग चित्तमहि, आणंदा किम जाइ सणहाणि ।। ॥ यही स्वर मूनि रामसिंह का भी है। 'दोहापाहड' में अनेक स्थानों पर आपने आन्तरिक शुद्धि पर जोर दिया है । एक दोहे में वे कहते हैं कि जब भीतरी चित्त मैला है, तब बाहर तप करने से क्या ? चित्त में उस निरंजन को धारण कर, जिससे मैल से छुटकारा हो : - 'अभितरचित्ति वि मइलियइं वाहिरि काइं तवेण । चित्ति णिरंजणु को वि धरि मुच्चहि जेम मलेण ।।६।। (पाहुड दोहा, पृ० १८) । इसी प्रकार से अनेक उद्धरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं, जो यह सिद्ध करते हैं कि आनन्दतिलक वही कह रहे हैं, जो योगीन्दु मुनि और मुनि रामसिंह कह चुके हैं। वस्तुत: उपर्युक्त ग्रन्थों के समान ही 'पाणंदा' में प्रात्मा की व्यापकता का वर्णन किया गया है, आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता को मान्यता दी
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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