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________________ द्वितीय अध्याय ५५ पर का भेद दर्शन कराने वाले गुरू की कवि प्रारम्भ में ही इस प्रकार वन्दना करता है : 'गुरु दिण्यरु गुरु हिमकरणु गुरु दविउ गुरु देउ। अप्पापरहं परंपरहं जो दरिसावइ भेउ ||१|| शैव और शाक्त माधना के अनुमार शिव और शक्ति के विषमी भाव से ही यह मृष्टि प्रपंच है। संमार का यह द्वन्द्व तभी तक है. जब तक शिव-शक्ति का मिलन नहीं हो जाता। यह विश्व विषमता की पीड़ा से ही स्पन्दित हो रहा है। सुख दुःख का भी यही मूल कारण है। शिव-शक्ति का यह व्यापार ही विश्व की गति का कारण है। शिव-शक्ति अभिन्न तत्व है, यह जान लेने से सम्पूर्ण संसार का ज्ञान हो जाता है और मोह विलीन हो जाता है। मुनि रामसिंह कहते हैं :-- सिव विंणु सत्ति ण वावरइ सिउ पुणु सत्ति विहीण । दोहि मि जाणहि सयलु जगु बुज्झइ मोहविलीगु ।।५।। जब शिव-शक्ति का मिलन हो जाता है. तब समस्त द्वैत भाव तिरोहित हो जाते हैं। पूर्णता की स्थिति जाती है। इसी को मामरस्य भाव कहा गया है। व्यष्टि का समष्टि में, जीवात्मा का परमात्मा में मिल जाना, एकमेक हो जाना ही सामरस्य है। जब मन परमेश्वर से मिल जाता है, कोई अन्तर ही नहीं रह जाता तो किसी बाह्याचार की आवश्यकता ही नहीं रह जाती। जब दोनों एक हो गए तो किसकी पूजा की जाय ? मणु मिलियउ परमेसर हो, परमेसरु जि मणम्स | विणिण वि समरसि हुइ रहिय पुज्जु चडावर कस्स ॥४६॥ __ शरीरजन्य सुख-दुःखों का तभी तक आभास होता है, जब तक यह सामरस्य भाव नहीं आता : देहमहेलो एह बढ़ तउ सत्तावइ ताम । चित्त णिरंजणु परिणु सिंहु समरसि होइ ण जाम ।।६४|| इस सामरस्य अवस्था की प्राप्ति ही प्रत्येक साधक का चरम लक्ष्य है। इस अवस्था में पिंड और ब्रह्माण्ड का भेद नहीं रह जाता है, द्वैत भाव मिट जाता है और साधक स्वसंवेद्य रस का अनुभव करने लगता है, जिसकी समता विश्व का कोई भी आनन्द नहीं कर सकता। इस अवस्था में मन के संकल्प-विकल्प समाप्त हो जाते हैं, बुद्धि के तर्क-वितर्क शांत हो जाते हैं। इसीलिए मुनि रामसिंह ऐसा उपदेश सुनने की कामना प्रकट करते हैं जिससे वुद्धि तड़ से टूट जाय और मन भी अस्त हो जाय' : 'तुइ वुद्धि तडत्तिं जहिं मणु अंथवणहं जाइ। सो सामिय उवएसु कहि अणणहिं देवहिं काई ।। १. तुलनीय 'यत्र बुद्धिमनोनास्ति सत्ता संबित पर।कला । ऊहापोहो न तर्कश्च वाचा तत्र करोति किम् । (जठराधर संहिता)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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