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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन- रहस्यवाद इस प्रकार मुनि रामसिंह का महत्व एक सच्चे रहस्यवादी साधक के रूप में निर्विवाद रूप से स्पष्ट है । आप मध्यकाल के उच्चकोटि के साधकों में प्रमुख स्थान रखते हैं। आपके विचार बहुत कुछ सीमा तक समकालीन सिद्धों और नाथों से मिलते हैं । ५६ (५) आनन्नतिलक या महानन्द मुझे 'प्राणंदा नामक एक छोटी रहस्यवादी रचना 'आमेर शास्त्र भांडार' (जयपुर) मे प्राप्त हुई है। इसकी एक अन्य प्रति बीकानेर में श्री अगरचन्द नाहटा के पास सुरक्षित है। जयपुर की प्रति में ४४ छन्द हैं, १८ नं० का छन्द नहीं है। नाहटा जी की प्रति में ४२ छन्द हैं। दोनों प्रतियों में कुछ पाठ भेद भी है। इस सम्बन्ध में दो लेख 'वीर वाणी' पत्रिका में निकल चुके एक है श्री कासलीवालजी का और दूसरा है श्री नाहटाजी का । श्री कामता प्रसाद जैन ने भी अपने इतिहास में इस रचना का संक्षिप्त विवरण दिया है । नामकरण : रचना के नामकरण, रचनाकाल और रचनाकार आदि के सम्बन्ध में तीनों में मतभेद है। कासलीवालजी के मत से " रचना का नाम है-प्राणंदा । रचना का नामकरण उसके कवि के नाम पर हुआ है। कवीर, मीरा, सूरदास आदि कवियों के समान कवि ने अपने नाम को प्रत्येक छन्द के अन्त में दे दिया है । इस रचना के पढ़ने से आत्मीय आनन्द का अनुभव होता है। शायद इसलिए भी उसका नाम 'आनंदा' रखा गया हो।" श्री नाहटा जी की प्रति में रचना का नामोल्लेख नहीं है । उनके विचार से इसका नाम 'आणंदा' है भी नहीं। उनका कहना है कि जहाँ तक रचना के नामकरण का प्रश्न है, इसमें आनेवाले 'आणंदा' शब्द के पुनः पुनः आने के कारण ही किसी लेखक ने यह नाम लिख दिया है । कर्ता के नाम के साथ इसका सम्बन्ध नहीं है, न रचयिता ने इसका यह नाम रखा ही होगा' । रचना का नाम 'आणंदा' क्यों नहीं है ? इसका नाहटा जी ने कोई कारण नहीं बताया है और न रचना का अन्य 'नामकरण' ही किया । इसी प्रकार श्री कामता प्रसाद जैन ने बिना किसी प्रकार का विचार किए हुए केवल इतना लिखा है कि 'मुनि महानन्दिदेव ने 'आनन्दतिलक' नामक रचना साधुओं और मुमुक्षुओं को सम्बोधन के लिए आध्यात्मिक सुभाषित नीति रूप में के लिए रची थी । रचना का नाम 'आनन्दतिलक' कैसे है ? और गोपाल साह 'साहू गोपाल 3 १. बीरबा (अंक १४ १५ १६ १६८ २. वीर बी (वर्ष ३, अंक २१ ) २८१२८२ । ३. कामता प्रसाद जैन - हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पु० ८६ |
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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