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________________ तृतीय अध्याय शास्त्र भांडार' ( गुटका नं० २९२ । ५४ ) में ब्रह्मदीप कवि कृत 'मनकरहारास' नामक एक रचना और प्राप्त हुई है, जिसमें मन रूपी करभ को संसार-वन में लगी विपय बेलि को न खाने का उपदेश दिया गया है। इससे अनुमान होता है कि सिद्धों, सन्तों और जैन मुनियों में मन को 'करहा' की उपमा देना एक काव्य-रुढ़ि बन गई थी। अतएव 'करहा' शब्द का प्रयोग किसी स्थान विशेप का सूचक नहीं माना जा सकता। ग्रंथ का नाम प्रतियों में ग्रन्थ का नाम पाहडदोहा या दोहापाहड़ मिलता है। 'पाहड़' शब्द 'प्राभृत' का अपभ्रंश है। गोमम्टसार जीवकांड की २४१ वी गाथा में इस शब्द का अर्थ 'अधिकार' बतलाया गया है 'अहियारो पाहुइयं ।' उसी ग्रन्थ में आगे समस्त श्रुतज्ञान को 'पाहड़' कहा है। इसी आधार पर डा. हीरालाल जैन ने 'पाहुड़' का अर्थ 'धार्मिक सिद्धान्त संग्रह' और 'पाहड़ दोहा' को 'दोहों का उपहार' बताया है। पाहड़' शब्द का प्रयोग 'प्रकरण' के लिए भी होता है। पाइअसदमहणणवों में 'पाहड़' का अर्थ 'परिच्छेद' और 'अध्ययन' भी बताया गया है। कुन्दकुन्दाचार्य के लिखे हुए 'चौरासी पाड़ बताए जाते हैं। इसमें 'अष्टपाहड़' उपलब्ध भी हैं। वस्तुत: ये अष्टपाहुड़ दर्शन, चरित्र, सूत्र, बोध, भाव, मोक्ष, लिंग और शक्ति आदि भिन्न-भिन्न विषयों पर लिखे गए अध्याय या परिच्छेद ही हैं। अतएव 'पाहड़' शब्द का तात्पर्य केवल 'धार्मिक सिद्धान्त संग्रह' न होकर, किमी विशेष विषय पर लिखे गये परिच्छेद या प्रकरण से हैं। यहाँ पर यह भी प्रश्न उठता है कि ग्रन्थ का शुद्ध नाम 'पाहुड़दोहा' है या दोहापाहुड़। इसकी जो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, उनमें दोनों पद्धतियों का प्रयोग हुआ है। दिल्ली वाली प्रति में लिखा है : प्रारम्भ-अथ पाहुड़दोहा लिष्यते। अन्त- इति श्री मुनिरामसिंह विरचिता पाहुड़ दोहा समाप्त ।' कोल्हापुर की प्रति इस प्रकार है :प्रारम्भ-ॐ नमः सिद्धेभ्यः । अन्त-इति श्री योगेन्द्रदेव विरचित दोहापाहड़ नाम ग्रन्थ समाप्तं ।' जयपूर की प्रति का प्रारम्भ ग्रन्थ के प्रथम दोहे 'गुरु दिणयरु गुरु हिमकरण' से हुआ है और अन्त में लिखा है : 'इति द्वितीय प्रसिद्ध नाम जोगीन्दु विरचितं दोहापाहडयं समाप्तानि' 280 १. मनकरहा भव व ने मा चरइ, तदि विष वेल्लरी बहूत | तहं चरंतहं बहु दुख पाइयउ, तब जानहि गौ मीत ॥१॥ २. पाहुड़दोहा की भूमिका, पृ० १३ । ३. पं० हरगोबिन्द दास त्रिकमचंद सेठ-पाइअसद्दमहणणवी, पृ० ७३३ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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