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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद बालचन्द्र आदि द्वारा की गई 'परमात्मप्रकाश' की टीकाओं और कृतियों में भी रामसिंह का नाम कहीं नहीं मिलता है। इसी प्रकार योगसार की श्री ए० एन० उपाध्ये को प्राप्त चार प्रतियों में तथा मुझे प्राप्त दो प्रतियों (एक जयपुर के आमेर शास्त्र भाण्डार तथा दूसरी ठोलियों के मन्दिर) में भी 'रामसिंह' का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यदि 'दोहापाहड़' और परमात्मप्रकाश व योगसार के रचयिता एक ही व्यक्ति होते तो परवर्ती दोनों ग्रन्थों की किसी प्रति में 'रामसिंह' के नाम का उल्लेख कहीं न कहीं अवश्य होता। अतएव मेरा अनुमान है कि 'रामसिंह' का दूसरा नाम 'जोगीन्दु या योगेन्द्र' भी रहा होगा। किन्तु ये 'जोगीन्दु' परमात्मप्रकाश और योगसार के कर्ता 'योगीन्दु' से भिन्न रहे होंगे। जैन साहित्य में एक ही नाम के अनेक लेखक हए हैं और इसी कारण उनके समय, ग्रन्थ आदि के सम्बन्ध में काफी भ्रम पैदा हो जाता है। रूपचन्द और पांडे रूपचन्द को लेकर यही विवाद सामने आता है और 'भगवतीदास' नामक के कई जैन कवि इसी भ्रम को उत्पन्न कर देते हैं। मुनि रामसिंह के जीवन के सम्बन्ध में कोई विवरण प्राप्त नहीं है। डा० गलाल जैन के अनुसार "नाम पर से ये मुनि अर्हद्वलि आचार्य द्वारा स्थापित सिह' संघ के अनुमान किए जा सकते हैं। ग्रन्थ में 'करहा' (ऊँट) की उपमा बहुत आई है तथा भाषा में भी 'राजस्थानी' हिन्दी के प्राचीन महाविरे दिखाई देते हैं। इससे अनुमान होता है कि ग्रन्थकार राजपूताना प्रान्त के थे।'' डा. साहब का उक्त अनुमान किन्हीं पुष्ट प्रमाणों पर आधारित नहीं है। प्रथमत: तो इसी बात की सम्भावना है कि मुनि रामसिंह जैन मत में दीक्षित होने के बाद 'जोगीन्दु' हो गए होंगे। अतएव 'सिंह' संघ के सम्बन्ध का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। फिर 'करहा' शब्द का .मन के उपमान रूप में प्रयोग न केवल राजस्थान अपितु अन्य स्थान के कवियों द्वारा भी हुआ है। योगीन्दु मुनि ने 'परमात्मप्रकाश' में 'पंचिदिय-करहडा' (२। १३६ ) का प्रयोग किया है। वौद्ध सिद्धों ने अनेक स्थानों पर मन को 'करभ' कहा है। पूर्व दिशा के राज्ञी ( ? ) नामक कस्बे में पैदा हुए सरहपाद ने मन के लिए 'करहा' शब्द का प्रयोग किया हैं 'कवीर ग्रंथावली' में भी यह रूपक मिल जाता है। १७वीं शताब्दी के जैन कवि भगवतीदास ने 'मनकरहारास' नामक एक रूपक काव्य की ही रचना की थी, जिसमें मन को 'करभ' बताकर उसे वश में करने की बात कही गई है। इसके अतिरिक्त मुझे जयपुर के 'आमेर १. मुनि रामसिंह-पाहुड़दोहा की भूमिका, पृ. २७-२८। २. बद्धो धावहि दहदिहहिं मुक्को णिच्चल ठाई। एमह करहा पेक्खु सहि विहरिऊ महुँ पडिहाइ ।। (दोहाकोष, पृ० २४) ३. न्यूति जिमाऊँ अपनी करहा, छार मुनिस की डारो रे ।।७६।। ( कबीर ग्रंथावली, पृ० ११२)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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