SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद इस प्रकार एक प्रति में 'पाहुड़दोहा' और दो प्रतियों में 'दोहापाहुड़' का प्रयोग हुआ है । 'दोहपाड' हो अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है । 'परिच्छेद' और 'उपहार' दोनों अर्थो की दृष्टि से इसकी समीचीनता सिद्ध होती है - 'दोहों का परिच्छेद' अथवा 'दोहों का उपहार' । कुन्दकुन्दाचार्य के अष्टपाहुड़ में भी 'पाहुड़' शब्द बाद में आया है— दर्शनपाहुड़, चरित्रपाहुड़, सूत्रपाहुड़, बोधपाहुड़, भावपाहुड़, आदि अर्थात् दर्शन का प्रकरण, चरित्र का प्रकरण, सूत्र का प्रकरण मोक्ष का प्रकरण अथवा 'दर्शन का उपहार', 'चरित्र का उपहार' आदि । 'दोहा पाहुड़' नामक एक अन्य ग्रन्थ मुझे जयपुर के 'आमेर शास्त्र भाण्डार' से प्राप्त हुआ है। इसके अनेक दोहों में कवि का नाम 'महयदिणमुनि' आया है । प्रति के अन्त में लिखा है ' इति दोहा पाहुडं समाप्तं । ( इसका विस्तृत परिचय आगे दिया जाएगा, इससे यही सिद्ध होता है कि ग्रन्थ का नाम 'दोहा पाहुड' ही है । ५० रचना काल : 'दोहा पाहुड़' के रचनाकाल का उल्लेख कहीं नही मिलता है । अतएव इसके काल निर्धारण में भी अनुमान और परोक्ष मार्ग का आश्रय लेना पड़ता है । डा० हीरालाल जैन को जो दो प्रतियाँ प्राप्त हुई थीं, उनमें एक का लिपिकाल संवत् १७९४ (सन् १७३७ ) है । मुझे प्राप्त जयपुर की प्रति 'आमेर शास्त्र भाण्डार' के गुटका नं० ५४ में संग्रहीत है । इस गुटके के अन्त में लिखा है :'सं० १७११ वर्षे महामांगल्यप्रद आश्विनमासे शुक्ल पक्षे द्वितीयायां तिथौ सोमवासरे सीमंगलगोत्रे सुश्रावक पुन्यप्रभावक साह माधौदास तत् भ्राता साह जाय तत्पुत्र साहू नगइनदास पुस्तिका लिषायितं पठनार्थे । शुभमस्तु ।' इससे स्पष्ट है कि 'दोहा पाहुड' सं० १७११ (सन् १६५४ ) के पूर्व लिखा गया होगा । डा० हीरालाल जैन ने बड़े परिश्रम से 'दोहापाहुड़' के कुछ ऐसे दोहों को खोज निकाला है, जो परमात्मप्रकाश', हेमचन्द के 'शब्दानुशासन' और देवसेन के ‘सावयधम्मदोहा' में उसी रूप में अथवा थोड़े अन्तर से पाए जाते हैं । डा० साहब ने बड़े ही प्रामाणिक ढंग से यह भी सिद्ध कर दिया है कि 'परमात्मप्रकाश' और 'सावयधम्म दोहा' पूर्ववर्ती ग्रन्थ हैं तथा उनमें से ही ज्ञान अथवा अज्ञानवश कुछ दोहे 'दोहापाहुड़' में आ गए हैं। हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण ग्रंथ के आठवें प्रकरण में ‘अपभ्रंश' का व्याकरण लिखा है और उदाहरण रूप में अपने पूर्ववर्ती अपभ्रंश कवियों के छन्दों को उद्धृत किया है। ऐसे तीन दोहे 'परमात्मप्रकाश' के भी पाए गए हैं । अतएव मुनि रामसिंह का समय योगीन्दु मुनि और देवसेन के बाद तथा हेमचन्द्र के पूर्व अनुमानित होता है । हम योगीन्दु मुनि का समय पहले ही ईसा की आठवीं-नवीं शताब्दी निश्चित कर चुके हैं | देवसेन का दसवीं शताब्दी में होना निश्चित ही है, क्योंकि उन्होंने 'दर्शनसार' के अन्त में स्वयं कह दिया है कि उन्होंने ग्रन्थ को धारा नगरी के पार्श्वनाथ मन्दिर में बैठकर संवत् ९९० की माघ सुदी दशमी को १ पाहुदोहा की भूमिका - पृ०२८ से ३३ तक । -:
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy