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________________ तृतीय अध्याय ४६ योगीन्द्र के पक्ष में दो तर्क उपस्थित किए जा सकते हैं-(१) दो हस्तलिखित प्रतियों के अन में 'जोगीन्दु या योगेन्दु' नाम पाया है और (6) इसके अनेक दोहे परमात्मप्रकाश और योगसार से मिलते हैं। किन्तु यदि यह रचना योगीन्दु की है, तो उन्होंने अपना नाम मूल ग्रन्थ में क्यों नहीं दिया, जैसा कि अन्य दो ग्रन्थों में पाया है। फिर एक ही प्रकार के दोहों की पुनरावृत्ति कयों हुई है ? लेखक प्रायः एक ही प्रकार के भावों की पुनरावृत्ति से बचने का प्रयास करते हैं, क्योंकि यह एक प्रकार का दोष होता है। दोहामाह के दोहे परमात्मप्रकाग या योगमार में लगभग उनी रूप में विद्यमान हैं। अतएव इसके रचयिता और परमात्मप्रकाग' के कर्ता एक व्यक्ति नहीं हो सकते। श्री ए०एन० उपाध्ये का अनुमान है कि कुछ पद्यों की समानता और अपभ्रंश भापा को लक्ष्य में रखकर किसी अन्य कवि ने इसकी सन्धि में योगीन्द्र' नाम जोड़ दिया है। एक अन्य सम्भावना की ओर भी ध्यान जाता है कि मुनि रामसिंह और योगीन्दु मुनि एक ही व्यक्ति के दो नाम हे हांगे। गर्मासह पहले का नाम होगा और जब वह मुनि हो गए होंगे, तो उनका नाम 'योगीन्दु हो गया होगा। भारतीय इतिहास और साहित्य में ऐसे अनेक व्यक्तियों के नाम आते हैं, जो सन्त मार्ग में आने के बाद या काव्य क्षेत्र में दूसरे नाम से विख्यात हुए। स्वयं गोस्वामी तुलसीदास के सम्बन्ध में ऐसा प्रश्न उठा है और कुछ विद्वानों का अनुमान है कि उनका वाल्यकाल का नाम 'रामबोला' था। सिद्धार्थ' 'बुद्ध' हो गए, यह कौन नहीं जानता ? इसी प्रकार जब 'रामसिंह' जैन मुनि हुए हों, तो अपना नाम बदलकर 'योगेन्द्र' या 'जोगीन्दू' कर लिया हो, यह असम्भव नहीं है। जयपूर की हस्तलिखित प्रति से भी यही ध्वनित होता है। उसके अन्त के 'इति द्वितीय प्रसिद्ध नाम जोगीन्दु विरचितं' से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि कवि का दूसरा नाम, अधिक प्रसिद्ध नाम 'जोगीन्दु' है अर्थात् प्रथम नाम कोई दूसरा है। शायद 'रामसिंह' ? बहुत सम्भव है रामसिंह भी राजपूत हों और बनारसीदास के पूर्वजों के समान किसी जैन मुनि के प्रभाव में आकर जैन मतावलम्बी हो गए हों और तब उनका फिर से नामकरण संस्कार हुआ हो। किन्तु यदि यह सम्भावना भी सत्य हो तो भी रामसिंह और परमात्मप्रकाश के कर्ता को एक ही व्यक्ति नहीं माना जा सकता। कारण, थी ए. एन० उपाध्ये को प्राप्त परमात्मप्रकाश की दस हस्तलिखित प्रतियों में तथा मुझे जयपुर में प्राप्त एक प्रति में 'रामसिंह' का उल्लेख कहीं नहीं पाया है। ब्रह्मदेव, १. देखिए, परमात्मप्रकाश (प्रथम महा० ) का दोहा नं०८ और योगसार का दोहा नं. १०८। "So many common verses and the Apabh. dilect have perhaps led some scribe to put Yogendra's name in the colophon" (Introduction of Parmatma Prakasa, Page 62 ).
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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