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________________ नृतीय अध्याय ४५ धर्मों की शब्दावली ग्रहण करने में पाप हिचके नहीं तथा जैन मत की कुछ मान्यनामों से अलग जाने से डरे नहीं। आपने आत्मा के तीन स्वरूपों को प्राचार्य कुन्दकुन्द के समान हो स्वीकार किया और कहा कि द्रव्यदृष्टि से आत्मा एक होने पर भी पर्यायष्टि से तीन प्रकार का हो जाता है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा। गरीर को ही प्रात्मा समझनेवाले मुढ़ या बहिरात्मा होते हैं। ऐसे मिथ्यादृष्टी पुम्पों को यह विश्वास रहता है कि मैं गोरा हूँ, या श्याम वर्ण का हूँ। मै स्थूल शरीर का हूँ या मेरा शरीर दुर्बल है। वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि विभिन्न वर्गों की यथार्थता में भी निष्ठा रखते हैं।' किन्तु जो कर्म कलङ्क से विमुक्त हो जाता है, सम्यक दृष्टा हो जाता है, सत्यासत्य विवेकी हो जाता है, अात्मा के वास्तविक स्वरूप को जान लेता है, उसे शरीर और आत्मा का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। प्रात्मा की यही अवस्था परमात्मा कहलाती है। यह परमात्मा ही निरंजन देव है, शिव, ब्रह्मा, विष्णु है। एक ही तत्व के ये विभिन्न नाम हैं। योगीन्दु मुनि ने परमात्मा को ही निरंजन देव कहा है। और निरंजन कौन है ? इसका वर्णन करते हुए वह कहते हैं कि निरंजन वह है, जो वर्ण, गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श से रहित है, जन्म-मरण से परे हैं । निरंजन वह है, जिसमें क्रोध, मोह, मद, माया, मान का अभाव है। निरंजन वह है, जो पाप-पुण्य, राग-द्वेष हर्ष-विपाद आदि भावों से अलिप्त है। योगीन्दु मूनि का यह निरंजन' 'निरंजन मत' की याद दिला देता है। 'निरंजन मत' पाठवीं-नवीं शताब्दी में विहार, बंगाल आदि के कुछ जिलों में काफी प्रभावशाली रूप में फैला हुआ था। यह मत 'धर्म सम्प्रदाय' के नाम से भी पुकारा जाता था। धर्माप्टक नामक एक निरंजन स्तोत्र में 'निरंजन' की ठीक इसी प्रकार के शब्दों में स्तुति की गई है : ॐ न स्थानं न मानं च चरणारविन्दं रेखं न च धातुवर्ण । दृष्ठा न दृष्टिः श्रु ता न श्रतिस्तस्ये नमस्तेस्तु निरंजनाय ।। १. हउं गोरउ हउं सामल उ हउंजि विभिएणउ वएणु हउं तणु अंगउं थूलु हउं, एहउ मूढ़उ मण्णु ॥८॥ हउं वर बंभणु वइसु हउं, हउं खत्तित हउं सेसु । पुरिस णउंसउ इत्थु हउं मण्णइ मूढ़ विसेसु ॥८॥ (परमा०, प्रथरा महा०, पृ०८६) जासु ण वएणु ण गन्धु रसु जासु ण सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ||१६|| जामु ण कोहु ण मोहु मउ जासु ण माय ण माणु । जानु ण ठाणु ण झाणु जिय सो जि णिरंजणु जाणु ॥२६॥ अस्थि ण पुण्णु ण पाउ जसु अस्थि ण हरिस विसाउ । अस्थि ण एक्कु बि दोसु जसु सो जि णिरंजणु भाउ ॥२१॥ (परमा०, प्र० महा०, पृ० २७-२८)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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