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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद ग्रन्थ की रचना योगीन्दु मुनि ने अपने शिष्य भट्ट प्रभाकर के आत्मलाभ के लिए की थी। प्रारम्भ में भट्ट प्रभाकर पञ्चपरमेष्ठी तथा योगीन्दु मुनि की वन्दना करके निर्मल भाव से कहते हैं कि 'मुझे संसार में रहते हुए अनन्त काल व्यतीत हो गया, फिर भी सुख नहीं मिला, दुःख ही दुःख मिला। अतएव, हे गुरु ! चनुर्गति, (देवगति, मनुष्य गति, नरक गति, तिर्यक्गति) के दुःखों का निवारण करनेवाले परमात्मा का वर्णन कीजिए : 'भावि पणविवि पञ्च गुरु सिरि जोइन्दु जिणाउ । भट्टापहायरि विएणविउ विमुल करेविणु भाउ ॥८॥ गउ संसारि वसन्ताहं सामिय कालु अणन्तु । पर मई किपि ण पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्त महन्तु ॥६॥ च उगइ दुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पउ कोई। चउ गइ दुक्ख विणासयरु कहहु पसाएं सो वि ॥१०॥ (परमात्मप्रकाश, प्र० महाधिकार ) भट्ट प्रभाकर की इस प्रार्थना को सुनकर योगीन्दु मुनि 'परमतत्व' की व्याख्या करते हैं। वह आत्मा के भेद, बहिरात्मा, परमात्मा, अन्तरात्मा का स्वरूप, भोक्ष प्राप्ति के उपाय, निश्चयनय, व्यवहारनय, सम्यकदृष्टि और मिथ्यादृष्टि का वर्णन करते हैं । स्थान-स्थान पर भट्ट प्रभाकर शंका उपस्थित करते हैं, तब योगीन्दु उस विषय को अधिक विस्तार से स्पष्ट करते हैं। इसीलिए अन्त में उन्होंने कहा है कि पण्डितजन इसमें पुनरुक्ति दोष पर ध्यान न दें, क्योंकि मैंने भट्ट प्रभाकर को समझाने के लिए परमात्म तत्व का कथन वार-बार किया है : इत्थु ण लेवउ पण्डियहि गुण दोसु वि पुणरुत्त । भट्ट प्रभायर कारणई मई पुणु पुणु वि पउत्तु ॥२१॥ (परमात्मप्रकाश-द्वि० महाधिकार ) 'योगमार आपकी दूसरी रचना है। इसमें १०८ दोहा छन्द हैं। इसका विषय भी वही है, जो 'परमात्मप्रकाश' का है। ग्रन्थ के अन्त में कवि ने स्वयं कहा है कि संसार के दुःखों से भयभीत योगीन्दु देव ने आत्मसम्बोधन के लिए एकाग्न मन से इन दोहों की रचना की : ससारह भय भीयएण जोगिचन्द मुणिएण। अप्पा संबोहण कया दोहा इक्क मणेण ॥१८॥ दोनों ग्रन्थ श्री ए. एन. उपाध्ये द्वारा सम्पादित होकर 'रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला' में प्रकाशित हो चुके हैं। समीक्षा : योगीन्दु मुनि उच्च कोटि के साधक हैं । आपने जैन एवं जैनेतर ग्रन्थों का विशद अध्ययन किया था। आप संकीर्ण विचारों से पूर्णतया मुक्त थे। आपने अनुभूति को ही अभिव्यक्ति का आधार बनाया और केवल जैन धर्म के मान्य ग्रन्थों का ही पिष्टपेषण और व्याख्या आदि न करके, जिस चरम सत्य का अनुभव किया, उसे निर्भीक-निर्द्वन्द्व वाणी से अभिव्यक्त कर दिया। एतर्थ अन्य
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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