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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद ॐ श्वेतं न पोतं न रक्तं न रेतं न हेमस्वरूपं न च वर्णक न चन्द्रार्कवह्नि उदयं न अस्तं तस्मै नमस्तेऽस्तु निरंजनाय | ॐ न वृक्षं न मूलं न बीजं न चांकुरं शाखा न पत्रं न च स्कंध पल्लवं पुष्पं न गंध न फूलं न छाया तस्मै नमस्तेऽस्तु निरंजनाय । ॐ अधां न ऊर्ध्वं शिवो न शक्ती नारी न पुरुषो न च लिंगमूर्त्तिः हस्तं न पाई न रूपं न छाया तस्मै नमस्तेऽस्तु निरंजनाय । ( धर्मं पूजा विधान, पृ० ७७-७८ ) यह निरंजन देव ही परमात्मा है । इसे जिन, विष्णु, बुद्ध और शिव आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है।' इसको प्राप्त करने के लिए बाह्यचार की आवश्यकता नहीं । । जप, तप, ध्यान, धारणा, तीर्थाटन आदि व्यर्थ है । इसको तो निर्मलचित्त व्यक्ति अपने में ही प्राप्त कर लेता है । मानसरोवर में हंस के समान निर्मल मन में ब्रह्म का वास होता है । उसे देवालय, शिल्प अथवा चित्र में खोजना व्यर्थ है। जब मन परमेश्वर मे मिल जाता है और परमेश्वर मन से तब पूजा विधान की आवश्यकता भी नहीं रह जाती, क्योंकि दोनों एकाकार हो जाते हैं, समरस हो जाते हैं : म मिलियउ परमेसरहं, परमेसरु वि मरणस्स । बीहि व समरसि हूवाहं पुज्ज चडाव कस्स ||१२|| इस सामरस्य भाव के आने पर हर प्रकार का वैषम्य समाप्त हो जाता है, द्वैत भाव का विनाश हो जाता है । वस्तुतः पिण्ड में मन का जीवात्मा में तिरोभूत हो जाना या एकमेक होकर मिल जाना ही यह सामरस्य है । इस अवस्था को प्राप्त होने पर साधक को किसी प्रकार के बाह्य आचरण या साधना की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है । इस प्रकार श्री योगीन्दु मुनि आठवीं नवीं शताब्दी के अन्य साधकों के स्वर में स्वर मिलाकर ब्रह्म के स्वरूप, उसकी प्राप्ति के उपाय आदि का मोहक विवरण प्रस्तुत करते हैं, आपका महत्व इस बात में भी है कि आपने प्राकृत भाषा को न अपनाकर जन सामान्य में व्यवहृत भाषा को स्वीकार किया । इससे आपकी उदार मनोवृत्ति का परिचय प्राप्त हो जाता है। श्री ए० एन० उपाध्ये ने ठीक २. १. णिम्मलु णिक्कलु सुद्ध जिणु बिराहु बुद्ध सिव सन्तु । सो परमप्पा जिण भणिउ एहउ जाणु णिभन्तु ॥ ६ ॥ ( योगसार, पृ० ३७३ ) णिय मणि णिम्मलि णाणियहं णिवसर देव अणाइ | हंसा सरवरि लीगु जिम मधु एहउ पsिहाइ || १२२|| देउ ण देवले रावि सिलए गवि लिप्पइ गवि चित्ति । श्रखउ गिरंजणु णागमउ सिउ संठिउ सम चित्ति || १२३ || ( परमा०, प्र० महा०, पृ० १२३ - १२४ )
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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