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________________ तृतीय अध्याय णग्गो पावइ दुक्खं रणग्गो संसारसायरे भमई। णग्गोण लहइ बोहिं जिणभावगण वज्जिओ सुइ ।।८।। (भ.वपाहु) अर्थात् नग्न सदैव दुःख को प्राप्त होता है. नग्न संसार-सागर में भ्रमण करता है। जिन भावना-बजित नग्न ज्ञान को नहीं प्राप्त कर सकता है। स्वसंवेद्यज्ञान और पुस्तकीय ज्ञान में भारी अंतर है। सभी संतों ने यह स्वीकार किया है कि मात्र वाह्यज्ञान या पुस्तकज्ञान से कोई भी व्यक्ति परम तत्व' को जान नहीं सकता। उसके लिए अनुभूति और स्वसंवेद्यनान की अपेक्षा होतो है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि अनेक शास्त्रों को पढ़ना तथा वहविधि बाह्य चरित्र करना, वाल-चरित्र के समान है, प्रात्म-स्वभाव के प्रतिकूल है : जदि पढ़दि बहुसुदाणि य जदिकहिदि बहुबिहं चारितं। तं बालसुद्ध चरणं हवेइ अप्पस्स विवरीदं ॥१०॥ (मोक्ष पाहुड) समयसार श्री कुन्दकुन्द का प्रमुख ग्रंथ है। इसमें जीव-अजीव, कर्ताकर्म, पूण्य-पाप, संवर-निर्जरा, बंध-मोक्ष प्रादि का विशद विवेचन किया गया है। सामान्यत: यह शुद्ध दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ है। लेकिन प्रात्मा-परमात्मा या बंध-मोक्ष का वर्णन करते समय कवि यत्र-तत्र भाबुक हो जाता है और ठीक उसी शैली को अपना लेता है, जो उसके 'मोक्षपाहड' या 'भावपार' की है और तब उसके ग्रन्थ में रहस्यवादी भावना की एक झलक मिल जाती है। वह कोरा बौद्धिक नहीं रह जाता, उसका हृदय पक्ष प्रबल हो उठता है और वह अज्ञात लोक की या अनिर्वचनीय बातें कहने लगता है। कहीं प्रात्मा का वास्तविक स्वरूप. कहीं कर्मबंध का स्वरूप, कहीं कर्म वधन को रोकने का उपाय, इस प्रकार महत्वपूर्ण विषयों पर वे अपना हृदय निःसंकोच भाव से खोलते जाते हैं। किसी किसी जगह तो ऐसा प्रतीत होने लगता है कि लेखक बुद्धि से परे की अनुभव की कहानी कह रहे हैं।" १. तुलनीय जमु मणि णाणु ण विफुरइ कम्यहं हेउ करंतु । सो मुणि पावइ सुक्खु णवि सयलई सत्थ मुणंतु ||२४|| (मुनि रामसिंह-पाहुइदोहा) २. गोपालदास जीवाभाई पटेल-कुन्दकुन्दाचार्य के तीन रत्न, पृ० १८, प्र० भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्र० संस्करण, फरवरी, १६४८ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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