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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद आत्मा अपने स्वरूप से अनभिज्ञ हो जाता है। दोनों में केवल पर्याय भेद होता है। अनाव प्रत्येक आत्मा कर्मादि से मुक्त होकर उसी प्रकार परमात्मा बन मकता है. जिम प्रकार सुवर्ण-पापाण शोधन सामग्री द्वारा स्वर्ण शुद्ध बन जाता है : 'अइसोइण जोएणं सुद्ध हेमं हवेइ जह तहय । कालाई लद्धीये अप्पा परमप्पो हवदि ॥२४॥ (मोक्ष पाहुड़) इमीलिए आपने वाह्याचार का खण्डन किया। यहाँ तक कि जैन धर्म के मुल आधार लिंग ग्रहण' आदि का भी विरोध किया और कहा कि जो साधू वाहा लिग से युक्त है, अभ्यन्तर लिंग रहित है, वह आत्मस्वरूप से भ्रष्ट है और मोक्ष-पथ-विनायक है : बाहिरलिंगेण जुदो अभंतर लिंगरहियपरियम्मो। सो सगचरित्तभट्ठो मोक्खपहविणासगो साहू ॥६१।। (मोक्ष पाहुड) आपका निश्चित विश्वास था कि ऐसे व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिल सकता जो भाव मे रहित है, वह चाहे अनेक जन्मों तक विविध प्रकार के तप करता रहे और वस्त्रों का परित्याग कर दें : भावरहिओ सिज्मइ जइ वि तां चरइ कोडिकोडीओ। जम्मनराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ॥४॥ (भावपाहुड) उक्त कथन में ऐसे दिगम्बरों का विरोध किया गया है, जो वस्त्र परित्याग करने मात्र से ही अपने को मोक्ष का अधिकारी मान लेते थे। आपको यद्यपि स्वयं दिगम्बर माना जाता है और दिगम्बर जैनों में आप पूज्य भी हैं तथापि आप केवल नग्नता को ही मिद्धि की कसौटी माननेवाले जैनों पर किस निर्ममता से प्रहार करते थे. यह निम्नलिग्विन गाथा से स्पष्ट हो जाता है : १. तुचन एह जु अप्पा मो परममा कम्म-विसमें जाय उ जप्पा । जामई जागाइ अप्पे अप्पा तामई सो जि देउ परमया ॥१७४।। जो परमप्पा णाणम उ मो हउंदेउ अणंतु । जो हर मी परमप्यु पर एह उ भावि भिंतु १७५| (योगन्दुनि-परमाम प्रकाश, प.० ३१७) २. तुलनीय - वपतव मंजम मन गुग मदद मोव ण बुनु । जावण जाणइ इक्क पर मुद्धउ भाउ पवितु ।। ( योगसार, पृ० ३७७)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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