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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद (२) कातिकेय मुनि परिचय: 'कतिगेयाण पेवग्या या 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के कर्ता श्री मुनि कार्तिकेय के समय और जीवन का कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता। किंवदन्तियों और धार्मिक कथानों ने उनके जीवन को अधिक रहस्यमय बना दिया है। विद्वानों ने उनके आविर्भाव काल की कल्पना एक ओर विक्रम सम्वत् की दो-तीन शती पूर्व तक की है तो दूसरी ओर उन्हें ईसा की छठी शताब्दी के बाद तक का माना गया है। मौखिक परम्पराओं के आधार पर श्री पन्नालाल ने कुमार का प्राविर्भाव विक्रम की दो-तीन शताब्दी पूर्व स्वीकार किया है।' श्री विन्तरनित्ज़ के अनुसार कार्तिकेय मुनि ईसा की प्रथम शताब्दी में विद्यमान थे। श्री ए० एन० उपाध्ये ने कार्तिकेयानुप्रक्षा को एक गाथा और योगीन्दु मुनि के 'योगसार' के एक दोहे की समानता का उल्लेख करते हुए स्वामी कार्तिकेय को योगीन्दु मुनि का परवर्ती माना है। उन्होंने योगीन्दु मुनि का समय ईसा की छठी शती माना है। इस प्रकार उनके मत से स्वामी कार्तिकेय छठी शताब्दी के बाद हुए। आचार्य कुन्दकुन्द जैन परम्परा के प्रथम प्राचार्य माने जाते हैं। जैनों में ऐसा विश्वास है कि कुन्दकुन्दाचार्य ने ही सर्वप्रथम महावीर स्वामी के उपदेशों को लिपिबद्ध किया। उनका समय ईसा की प्रथम शती माना गया है। अतएव इसके पूर्व स्वामी कार्तिकेय के अस्तित्व की कल्पना तर्क संगत नहीं प्रतीत होती। श्री ए. एन उपाध्ये का निष्कर्ष भी किन्हीं पुष्ट प्रमाणों पर आधारित नहीं है। 'कातिकेयानुप्रेक्षा' की जिस गाथा (२७९) का आधार योगसार का दोहा (६५) बताया गया है, वह दोहा ही गाथा का परिवर्तित रूप हो सकता है। इसके अतिरिक्त केवल एक गाथा और दोहा के समान भाव को देख कर एक कर्ता को दूसरे का परवर्ती या पूर्ववर्ती भी कह देना उचित नहीं प्रतीत होता। दो महाकवियों या महापुरुषों में समान भावों या विचारों का पाया जाना एक साधारण बात है। ऐसे समान भावों को देखकर दूसरे के द्वारा प्रथम का भावापहरण भी नहीं कहा जा सकता। फिर योगीन्दु मुनि का समय भी छठी शताब्दी नहीं है। वस्तुत: वे आठवीं-नवीं शताब्दी के कवि हैं। अतएव इन तथ्यों से कार्तिकेय के जीवन पर कोई प्रकाश नहीं पड़ता। इससे केवल इतना ही अनुमान होता है कि वे ईसा की प्रथम शती या उसके कुछ समय बाद ही हुए। १. परमान्म प्रकाश की भूमिका, पृ०६५ । 2. Kartikeya Svamin, too probably, belong to the first Centuries of the Christian era-M. Winternitz-A History of Indian Literature. Page 477. As to the relative periods of Yugindu and Kumara the former in all probability is earlier than the latter. ( Paramatma Prakasa-introduction, page 65 )
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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