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________________ तृतीय अध्याय कुन्दकुन्द प्रथम रहस्यवादी कवि : आचार्य कुन्दकुन्द यद्यपि एक दार्शनिक व्याख्याता के रूप में ही प्रसिद्ध हैं और उनके ग्रन्थ जैन दर्शन के संदर्भ-ग्रन्थ माने जाते हैं तथापि आपके काव्य मेंविशेष रूप से भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड और बोध पाहुड में कुछ स्थल ऐसे हैं, जिन्हें हम 'रहस्यवाद' की कोटि में रख सकते हैं। वस्तुतः इन ग्रंथों से परवर्ती जैन रहस्यवादी कवि विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं और उनकी ही प्रेरणा पर आगे बड़े हैं । योगीन्दु मुनि के 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार पर तथा मुनि राम सिंह के 'पाहुडदोहा' पर तो इन ग्रन्थों की स्पष्ट छाप है और अनेक गाथाए तो थोड़े से शब्द-परिवर्तन के साथ उसी प्रकार रख दी गई हैं। आत्मा-परमात्मा पाप-पुण्य, बाह्यचार आदि के सम्बन्ध में जो मान्यताएं कुन्दकुन्दाचार्य की हैं, उन्हीं का पोषण और विस्तार परमात्मप्रकाश' और 'पाहुडदोहा' आदि में देखा जा सकता है । आप 'मोक्षपाहुड' में आत्मा के तीन स्वरूपों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि आत्मा तीन प्रकार है- अंतरात्मा बहिरात्मा और परमात्मा । अन्तरात्मा के उपाय से बहिरात्मा का परित्याग कर परमात्मा का ध्यान करो : तिपयारो सो अप्पा परमंतरवाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो माइज्जइ, अंतोवाएण चएहि बहिरप्पा ||४|| ३१ इसी प्रकार योगीन्दु मुनि आत्मा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि आत्मा तीन प्रकार का है-मूढ़, विचक्षण और ब्रह्मपर । मृढ़ अर्थात् मिथ्यात्वरागादि रूप परिणत हुआ बहिरात्मा, वीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान रूप से परिणमन करता हुआ अन्तरात्मा और शुद्ध स्वभाव परमात्मा । जो देह को ही आत्मा मानता है, वह मूढ़ है। -- मूढ, विक्ख, बंभु पर अप्पा तिविहु हवेइ | अप्पा जो मुइ सो जणु मृढ़ हवेइ || १३॥ ( परमात्म प्रकाश ) श्री कुन्दकुन्दाचार्य तीनों के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए पुनः कहते हैं कि इन्द्रियों के स्पर्शनादि के द्वारा विषय ज्ञान कराने वाला वहिरात्मा होता है । इन्द्रियों से परे मन के द्वारा देखने वाला, जानने वाला 'मैं हूं' ऐसा स्वसंवेदन गोचर संकल्प अन्तरात्मा है और द्रव्यकर्म ( ज्ञानावरणादि ) भाव कर्म ( राग-द्वेषमोहादि ) नोकर्म ( शरीर आदि ) कलंक मल रहित अनन्त ज्ञानादि गुण सहित परमात्मा है : अक्खाणि बहिरा अन्तरप्पा हु अप्पकप्पो । कम्मलंक विमुको परमप्पा भरणाए देवो ||५|| ( मोक्ष पाहुड ) आपने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में यह कहा था कि आत्मा और परमात्मा में कोई तात्विक भेद नहीं है। बाह्यावरण या पुद्गल के संयोग के ही कारण
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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