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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद रहो बंगले में बालम करूँ तोहे राजी रे । र ॥ टेक ।। निज परिणति का अनुपम वॅगला, संयम कोट सुगाजी रे ॥२०॥ चरण करण सप्तति कगुरा, अनन्त विरजथंम साजी रे र०॥१॥ सात भूमि पर निरमय खेलें, निर्वेद परम पद लाई रे र ॥ विविध तत्व विचार सुखड़ी, ज्ञान दरस सुरभि भाई रे रा२।। अहनिशि रवि शशि करत विकासा, सलिल अमीरस धाई रे र॥ विविध तूर धुनि सांभल बालक, सादबाद अगवाई रे ।र ॥३॥ ध्येय ध्यान लय चढ़ी है खुमारी, उतरी कबहुँ न रामी रे र॥ मुनि निधि संयम धरनी वाचा, ज्ञानानन्द सुख धामी रे ।र०॥४॥ जैन कवि और काव्य का संक्षिप्त परिचय देने के बाद अब प्रमुख कवियों के सम्बन्ध में विस्तार से विचार कर लेना भी आवश्यक है। अत: प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी के विशिष्ट रहस्यवादी जैन कवियों के व्यक्तित्व और कृतित्व का विस्तृत परिचय दिया जा रहा है : (१) कुन्दकुन्दाचार्य श्री कुन्दकन्दाचार्य जैन साहित्य और दर्शन के आदि आचार्य माने जाते है। जैन सिद्धान्तों को सर्वप्रथम लिपिबद्ध करने का श्रेय आपको ही प्राप्त है। जैन परम्परा में आपका स्थान भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद ही आता है और आपको उसी प्रकार पूज्य दृष्टि से देखा भी जाता है : मंगलं भगवान वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाचार्यो, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ॥ आपका आविर्भाव कब और कहाँ हआ था? इस पर विद्वानों में मतभेद है। मामान्यतया आपको ई० पूर्व तीसरी शताब्दी से लेकर ई० के बाद पाँचवीं शताब्दी तक घसीटा जाता है। कृन्दकन्दाचार्य ने स्वयं अपने विषय में कुछ नहीं लिखा है, केवल बोधपाहुड़ की गाथा नं० ६१ में अपने को 'भद्रबाहु' का शिष्य बताया है : सद्दवियारो भूओ भासामुत्तेपु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्दबाहुस्स ॥ ६१ ॥' इस गाथा के दो प्रकार से अर्थ लगाए जा सकते हैं : (3) शब्द विकार में उत्पन्न, अक्षर रूप में परिणत भापासूत्र में जिनदेव में जोड़ा गया. वह भद्रबाह नामक पंचम धनके वली ने जाना और अपने शिष्यों म यहा (वही ज्ञान गिप्य परम्परा से वृन्दकुन्दाचार्य को प्राप्त हुआ) । १. श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित 'अष्टपाहुड के अन्तर्गत बोधपाहुड़ की गाथा नं. (६१.६२, प्रकाशक, मुनि श्री अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला समिति (बम्बई ) प्रथमावृति, वीर नि० सं० २४५०।)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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