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________________ तृतीय अध्याय २६ (२) जो जिनेन्द्रदेव ने कहा, वही द्वादशांग में शब्दविकार से परिणत हुआ और भद्रबाहु के शिष्य ने उसी प्रकार जाना है तथा कहा है ।' बोधपाहड़' की ६वीं गाथा में भद्रवाह का थोड़ा परिचय मिल जाता है। उसमें कहा गया है कि द्वादशांग के ज्ञाता तथा चौदह पूर्वाङ्ग का विस्तार से प्रसार करनेवाले गमक गुरू श्रुनज्ञानी भगवान भद्रबाहु की जय हो : 'वादस अगं वियाणं च उद्स पुव्वंगविउलवित्थरणं । सुयणाणि भद्रबाहु गमयगुरू, भयबओ जयओ।।२।। दिगम्बरों की पट्टावली में दो भद्रबाहुओं का उल्लेख मिलता है। प्रथम भद्रवाहु की मृत्यु महावीर स्वामी के निर्वाण के १६० वर्ष वाद अर्थात् ई० पू० ३६५ में हुई और दूसरे की ५१५ वर्ष पश्चात अर्थात १२ वर्प ई० पू० में हई। श्री विन्टरनित्ज़ के अनुसार कुन्दकुन्दाचार्य ईमा की प्रथम शताब्दी में विद्यमान थे और सम्भवतः वे भद्रबाहु द्वितीय के शिष्य थे। बोधपाहड़ की रवीं गाथा में भद्रवाह को 'श्रतज्ञानी' या श्रतकेवली बताया गया है। भद्रवाह प्रथम ही श्रुतकेवली थे, क्योंकि ऐसा विश्वास किया जाता है कि चार पूर्व ग्रंथ तो प्रथम भद्रवाह के बाद ही लुप्त हो गये थे और वही अन्तिम चौदह पूर्वो के ज्ञाता थे । अतएव दोनों गाथाएं प्रथम भद्रबाह से ही सम्बद्ध प्रतीत होती हैं, किन्तु भद्रवाह प्रथम ई०पू० तीसरी शताब्दी में हुए थे और कुन्दकुन्दाचार्य के उस समय वर्तमान होने के कोई प्रमाण नहीं मिलते। अत: बहुत सम्भव है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्य भद्रबाहु प्रथम के प्रत्यक्ष गिप्य न होकर उनकी शिप्यपरम्परा में आते हों। 'भारतीय साहित्य के इतिहास (A History of Indian Litt.) की एक पाद टिप्पणी से भी इसी की पुष्टि होती है। उसमें कुन्दकुन्दाचार्य को भद्रबाहु प्रथम की शिप्य परम्परा में पाँचवाँ शिष्य माना गया है। 1. The Digambars tell us, however, that there were two Bhadrabahus, the first of whom died 162 years after the Nirvana of Mahavira (i. e. 365 B. C.) and the second 515 years after the Nirvana ( i.e. 12 B. C. )............. .. Kundkunda, who, aecording to the Pattavali of the Digambaras, lived in the first century A. D. calls himself a pupil of Bhadrabahu, perhaps referring there by to Bhadrababu II-A. winternitz-A History of Indian Literature, Voll. II. 2. According to a Digambara Pattavali, he ( Kundkund) is the fifth in the genealogical tree of teachers, beginning with Bhadrabahu'-.I. Winternitz -A History of Indian Literature ( Foot Note, Page 476).
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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