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________________ द्वितीय अध्याय जड़ान्ध मूकवधिरपिशाचोन्मादकवदवधूतवेषोऽभिभाव्यमाणोऽपि जनानां गृहीत मौनव्रतस्तूष्णीं बभूव ।” (श्रीमद्भागवत् गीताप्रेस, पंचम स्कन्ध तृतीय अध्याय, पृ० ५५५ ) ३ १७ वह कभी नगरों और गाँवों में चले जाते तो कभी खानों, किसानों की बस्तियों, बगीचों, पहाड़ी गांवों, सेना की छावनियों, गोशालाओं, ग्रहीरों की बस्तियों और यात्रियों के टिकने के स्थानों में रहने, कभी पहाड़ों, जंगलों और आश्रम आदि में विचरते। वे किसी भी रास्ते से निकलते तो जिस प्रकार वन में विचरने वाले हाथी को मक्खियाँ सताती हैं, उसी प्रकार मुर्ख और दुष्ट लोग उनके पीछे हो जाते और उन्हें तंग करते। कोई धमकी देने, कोई मारने, कोई पेशाब कर देते, कोई थूक देते, कोई ढेला मारते, कोई विष्टा और धूल फेंकने, कोई अधोवायु छोड़ते और कोई खरी खोटी सुनाकर उनका तिरस्कार करते । किन्तु वे इन बातों पर जरा भी ध्यान न देते। इसका कारण यह था कि भ्रम सं सत्य कहे जाने वाले इस शरीर में उनकी अहंता-ममता तनिक भी नहीं थी । वे कार्य-कारण रूप सम्पूर्ण प्रपंच के साक्षी होकर अपने परमात्मस्वरूप में ही स्थित थे, इसलिये प्रखंड चित्तवृत्ति से अकेले ही पृथ्वी पर विचरते रहते थे । आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव के उपदेश भी 'आत्मपरक' हुआ करते थे । ठीक उपनिषद् की शैली में आप भी ग्रात्मतत्व की प्राप्ति के लिए कर्मबंधन से छुटकारा श्रावश्यक समझते थे। उन्होंने अपने पुत्रों से कहा था कि जब तक जीव को प्रात्मतत्व की जिज्ञासा नहीं होती, तभी तक अज्ञानवश देहादि के द्वारा उसका स्वरूप छिपा रहता है। जब तक वह लौकिक वैदिक कर्मों में फँसा रहता है, तब तक मन के कर्मो की वासनाएं भी बनी रहती हैं और इन्हीं से देह बन्धन की प्राप्ति होती है। : 1. पराभवस्तावदबोधजातो, यावन्न जिज्ञासत आत्मतत्वम् । यावत्क्रियास्तावदिदं मनोवै कर्मात्मकं येन शरीर बंधः ॥ ( श्रीमद्भागवत, गीताप्रेस, पंचम स्कन्ध, तृतीय अध्याय, पृ० ५५५.) ऋषभदेव के जीवन चरित और साधना पद्धति का जो उपर्युक्त वर्णन श्रीमद्भागवत में मिलता है, उससे यह असंदिग्ध रूप से प्रमाणित हो जाता है। कि ऋषभदेव विश्व के उच्चकोटि के रहस्यदर्शियों में थे और आपने एक नवीन धर्म को ही जन्म नहीं दिया था, अपितु उसके मूल में श्रात्मपरिष्कार के सच्चे बीजों का वपन भी कर दिया था। इसीलिए प्रो० आर० डी० रानाडे सदृश मनीषियों ने भी आपको उच्च कोटि का साधक और रहस्यदर्शी माना है । यहाँ Rishabhadeva, whose interesting account we meet with in the Bhagvata is yet a mystic of a different kind, whose utter carelessness of his body is the supreme mark of his God realisation. —R. D. Ranade—Indian Mysticism—AMysticism in Maharashtra, P. 9.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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