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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद एक बात का उल्लेख कर देना अति आवश्यक है कि ऋषभदेव का श्रीमदभागत द्वारा वर्णन जैन-परम्परा-समर्थित है। जैन धर्माचार्यों ने भी इसी प्रकार आपकी चिन्तामुक्तता, उदासीनता और साधना-पद्धति का वर्णन किया है। श्रीमदभागवत में आपका उल्लेख यह भी निश्चित कर देता है कि आप मात्र जैनियों द्वारा कल्पित आद्यतीर्थङ्कर ही नहीं है, अपितु वे एक ऐतिहासिक पुरुष हैं । अनुश्रुतियों, पौराणिक ग्रन्थों और इतिहासों में आपकी चर्चा होती रही है। पहले कुछ विद्वानों ने अवश्य आपकी ऐतिहासिकता पर सन्देह प्रगट किया था, किन्तु बाद में प्रसिद्ध विद्वान् डा. हर्मन याकोबी और भारतीय दार्शनिक डा० राधाकृष्णन् ने आपके अस्तित्व की प्रामाणिकता को सिद्ध कर दिया। डा० याकोबी ने लिखा है कि इसका कोई भी प्रमाण नहीं है कि पार्श्वनाथ जैन धर्म के संस्थापक थे। जैन परम्परा प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव को जैन धर्म का संस्थापक मानने के पक्ष में हैं। इस मान्यता में ऐतिहासिक सत्य की सम्भावना है। इसी प्रकार डा. राधाकृष्णन ने लिखा है कि जैन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म की उत्पत्ति होने का कथन करती है। ईसा पूर्व की प्रथम शताब्दी से ही उनकी पूजा के प्रमाण मिलते हैं। प्रो. महेन्द्रकुमार ने 'खंडगिरि उदयगिरि की हाथी गुफा से प्राप्त २१०० वर्ष पुराने लेख से ऋषभदेव की कुलक्रमागतता और प्राचीनता सिद्ध की है। इसके उपरान्त अन्य तीर्थङ्करों द्वारा इसी साधना पद्धति का अनुसरण किया गया है। कवियों और सिद्धान्त-प्रतिष्ठापकों द्वारा उसी का अनुगमन किया गया है। इस दिशा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य का नाम प्रमुख और प्रथम प्राचार्य के रूप में लिया जा सकता है। तदुपरान्त स्वामी कातिकेय, पूज्यपाद, अमृतचन्द्र, गणभद्र, अमितगति आदि अनेक सन्तों द्वारा इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान हा है। सातवीं शताब्दी से चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी तक अनेक सन्त कवि-जिनमें योगीन्द, मुनि रामसिह, देवमेन, नेमिचन्द्र, प्रानन्दतिलक, बनारसीदास, छोहल, रूपचन्द्र, दौलत राम, भैया भगवती दास और आनन्दधन प्रमुख हैंअपनी रचनाओं सं अात्मजिज्ञासु व्यक्तियों का मार्गदर्शन करते रहे। समय के १. देखि-प्रो० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य-जैन दर्शन, पृ० ३ । Tirere is nothing to prove that Parsliva was the founder of Jainism. Jain tradition is unanimous in making Rishabha the first Tirthankara as its founder). There may be something historical in the tradition which makes him the first Tirthankara." Indian Intiquary, Vol. IX, P. 163.) 3. "I'here is evidence to show that so far back as the first century B. C. there were people who were worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara." Indian Philosophy (Vol. I, P. 287.) ४. देखिए -प्रो० महेन्द्रकुमार, जैन दर्शन, पृष्ठ ३ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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