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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद माधक के लिए साधन के पथ पर अग्रसर होने के -पुण्य को समान पमहीन समझ कर, दोनों का त्याग नितान्त आवश्यक माना गया। सच्चे ज्ञान का मजा उसो को दी गई जिसके आलोक में पाप-पुण्य के तम का विनाश हो जाय । मुनि रामसिंह ने कहा कि 'हे मूर्ख । बहुत पढ़ने से क्या ? ज्ञान तिलिग (अग्नि कण) को मीख, जो प्रज्वलित होने पर पाप और पूण्य दोनों को विनष्ट कर देता है : णाणतिडिक्की सिक्खि बढ़ कि पढ़ियइ बहएण। जा सुधुक्की णिड्डहइ पुण्णु वि पाउ खणेण ॥७॥ जैन नार्थकर प्रमुख रहस्यवादी उस दृष्टि से जैन दर्शन में रहस्यवाद के तत्व, इसके अभ्युदय के समय में हो पा गए थे और यदि मूक्ष्म रूप से देखा जाय तो स्पष्ट हो जायगा कि जैन धर्म के अधिष्ठाता चौबीस तीर्थङ्कर संसार के प्रमुख रहस्यदर्शियों में थे। उनका जीवन-चरित्र, उनका रहन-सहन, उनका दैनिक प्राचरण इस दिशा में विशेष रूप में दष्टव्य है। वे जिम प्रकार बाह्य वासनाओं से अपने मन और शरीर को नियन्त्रित करके ग्राम चिन्तन में लीन रहा करते थे, क्या वह रहस्यात्मकता का प्रतीक नहीं है? क्या उनका जीवन प्रात्मा को परमात्मा की अवस्था तक परचा देने का साधन मात्र ही न था? श्री ए० एन० उपाध्ये ने 'परमात्मप्रकाश' की भूमिका में स्वीकार किया है कि व्यावहारिक दृष्टि से देखने पर जैन तीर्थ कर, ऋषभदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महाबीर आदि विश्व के महान रहस्यशियों में हुए हैं। उदाहरण के लिए हम आदि तीर्थ कर और जैन धर्म के प्रवर्तक ऋपभदेव को ले सकते हैं। श्रीमद्भागवत में उनका सविस्तार वर्णन मिलता है। उसके अनुसार आपने पृथ्वी का पालन करने के लिए अपने पुत्र (भरत) को राजगद्दी पर बैठा दिया और स्वयं उपशमशील, निवति परायण, महामनियों के भक्ति, ज्ञान और वैराग्य रूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के लिए विल्कूल विरक्त हो गए। शरीर मात्र का परिग्रह रक्खा और सव कुछ घर पर रहते ही छोड़ दिया। अब वे वस्त्रों का भी त्याग करके सर्वथा दिगम्बर हो गए। उस सयय उनके बाल बिखरे हुए थे, उन्मत्त का सा वेप था। वे सर्वथा मौन हो गए थे. कोई बात करना चाहता तो वोलते नहीं थे। जड़, अंधे, बहरे, गंगे, पिशाच और पागलों की सी चेप्टा करते हुए वे अवधूत बने हुए जहाँ तहाँ विचल्ने लगे : ___ भग्नं धरणिपालनायाभिपिच्य स्वयं भवन एवोर्वरति शरीर मात्र परिग्रह उन्मन इव गगनपरिधानः प्रकीर्ण केग आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात्प्रवद्वाज 1. I take practical view the Jain Tirthankaras like Rivelyadevt. Yeminath. Parsvanath and Mahavira etc. have Therelu nunicottle tratest mystics of the World. -Sri.l. X. L'padlicy--Introduction of Paramatma Prakash, Page 39.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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