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________________ द्वितीय अध्याय १५ यही नहीं वे व्यक्ति जो केवल विद और तर्क प्रधान ज्ञान को ही सर्वस्व समझ लेते है, ये कण को छोड़कर तृपको ही कटने है। वे ग्रन्थ और उसके अर्थ को जानते हए भी परमार्थ नहीं जानने । अतः मुर्व ही बने रहते हैं : - पंडिय पंडिय पंडिया का इंडिबि तुस कांडिया। अत्थे गंथे तुट्टो सि परमत्थु ण जाणहि मढोसि ।।५।। जैन मत में ज्ञान की कई कोटियां भी मानी गई है। कुन्दकुन्दाचार्य ने 'पंचास्तिकाय में ज्ञान के पाँच भेदों का उल्लेख किया है-मतिज्ञान, श्रतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवल जान।' इनमें प्रथम दो को ऐन्द्रिय अथवा परोक्ष ज्ञान और गेप तीन को अतीन्द्रिय अथवा प्रत्यक्ष जान कहा गया है। कुमति, कुश्रुत और विभंग-इन तीन अनानों का भी वर्णन मिलता है। इसमें बताया गया है कि ऐन्द्रिय ज्ञान केवल गोचर पदार्थ और उसके सम्बन्धों तक ही मीमित है। प्रत्यक्ष ज्ञान पूर्ण सत्य से परिचय करता है। केवल ज्ञान के प्राप्त होने पर जान, जाता और ज्ञेय में अन्तर नहीं रह जाता। अतएव केवलज्ञानी पूर्ण बन जाता है और पूर्ण की व्याख्या भापा से नहीं की जा सकती। वह अनिर्वचनीय है। वह तर्क से जाना नहीं जा सकता। ज्ञान' का यह विवेचन पहले बताए गए बन्डि रसेल के वर्णन के समान ही है। बदन्डि रसेल के ऐन्द्रिय ज्ञान के यहाँ दो भेद हो गए हैं-मति, ति। और प्रातिभज्ञान यहां 'केवल ज्ञान' के नाम से अभिहित किया गया है। जैनचार्यों ने पाप और पूण्य दोनों की निस्सारता की स्पष्ट दाब्दों में उद्घोपणा की है। यदि एक को लौह गृखला बताया है तो दूसरे को स्वर्ण शृखला। किन्तु हैं दोनों वन्धन-स्वरूपा। साधना के पथ पर अग्रसर होने वाले 'प्रात्मा के लिए दोनों अन्तराय बनकर पाते हैं। देवसेन ने 'सावयधम्मदोहा' में कहा है कि पुण्य और पाप दोनों जिसके मन में मम नहीं हैं उसे भवसिन्धु दुस्तर है। क्या कनक या लोहे की निगड़ प्राणी का पादबन्धन नहीं करती? पुण्णु पाउ जसु मणि ण समु तसु दुत्तरु भवसिन्धु । कणयलोहणियलहूं जियहु किं ण कुण हि पयवन्धु ।।२१।। कुंदकुंदाचार्य ने इसीलिए 'मोक्खपाहड़' में स्पष्ट रूप से कह दिया था कि योगी मन, वचन, कर्म से मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप-पुण्य का परित्याग कर योगस्थ होकर आत्मा का ध्यान करता है : मिच्छतं अण्णाणं पावं पुण्णं चएवि तिविहेण । मोणव्वएण जोई जोयत्थो जोयए अप्पा ।।१८।। (१) अभिगिनु धिनमा, केवलाणि णापाणि पनंभेवाणि । कुमदि मुदविभंगाणि. य तिषिण वि गाणे मंजुतौ ।।४|| (२) देखिये-श्री कुन्दकुन्द चार्य विरचित भावमा हुह के दोहा नं० ५६.६०
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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