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________________ द्वितीय अध्याय वस्तुतः इस प्रकार का वर्गीकरण सारपूर्ण नहीं दिखाई पड़ता इस विभाजन के मूल में आत्मभाषा और परनिन्दा की भावना ही प्रमुख रूप से कार्य करती थी । यही कारण है कि पाशुपतों और माहेश्वरों को 'नास्तिक' सिद्ध करने वाले शंकराचार्य को भी इसी आशेष का शिकार होना पड़ा था। जैनमत वेद को भले ही न मानना हो, अपने सिद्धान्तों की पुष्टि के लिए वेदों की दुहाई भले ही न देता हो, किन्तु उसे निरीश्वरवादी अथवा परलोक में विश्वास न करने वाला मत नहीं कहा जा सकता। डा० मंगलदेव शास्त्री ने उपर्युक्त वर्गीकरण की निस्सारता सिद्ध करते हुए लिखा है कि "यह वर्गीकरण निराधार ही नहीं, नितान्त मिथ्या भी है । प्रास्तिक और नास्तिक शब्द "अस्ति नास्ति दिष्टं मति" (पा० ४ ४ ६० ) इस पाणिनि सूत्र के अनुसार बने हैं। मौलिक अर्थ उनका यही था कि परलोक (जिसे हम दूसरे शब्दों में इन्द्रियातीत तथ्य भी कह सकते हैं) की सत्ता को मानने वाला 'पास्तिक' और न मानने वाला 'नास्तिक' कहलाता है। स्पष्टतः इस अर्थ में जैन और बौद्ध दर्शनों को नास्तिक कहा ही नहीं जा सकता। इसके विपरीत हम तो यह समझते हैं कि शब्द प्रमाण की निरपेक्षता से वस्तुतत्व पर विचार करने के कारण दूसरे दर्शनों की अपेक्षा उनका अपना एक आदरणीय वैशिष्ट्य ही है। जैन दर्शन की आस्तिकता आत्मा और परमात्मा 22 जैन मत में ईश्वर वा परमात्मा के उस स्वरूप को नहीं स्वीकार किया गया है, जो वेदों को मान्य है अथवा ब्राह्मण ग्रंथों मे जिसकी चर्चा है । किन्तु उपनिषद् का 'एक ब्रह्म' यहाँ श्राकर अनेक परमात्मा के रूप में पर्यवसित हो गया है। जैन दर्शन यह मानता है कि प्रत्येक आत्मा में यह शक्ति है कि वह परमात्मा बन जाय उसमें आत्मा की तीन अवस्थायें अथवा भेद माने गए हैंबहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । यह आत्मा की किसी जाति के वाचक न होकर अवस्था विशेष के ही बोधक हैं । बहिरात्मा उस अवस्था का नाम है जिसमें आत्मा अपने को नहीं पहचानता, देह तथा इन्द्रियों द्वारा स्फुरित होता हुम्रा, उन्हीं को अपना सर्वस्व मानने लगता है । अन्तरात्मा उस अवस्था विशेष का नाम है जिसमें यह जीवात्मा अपने को पहचानने लगता है, देहादि को अपने से भिन्न मानने लगता है, परन्तु पूर्णज्ञानी या पूर्णविद् नहीं बन जाता। परमात्मा, आत्मा की उस विशिष्ट अवस्था का नाम है जिसे पाकर यह जीव पूर्ण विकास को प्राप्त होता है और पूर्ण सुखी, पूर्ण ज्ञानी बन जाता है । इस प्रकार अवस्था या पर्याय की दृष्टि से ग्रात्मा की त्रिविधता है, स्वरूप या द्रव्य की दृष्टि से नहीं । १. मो० महेन्द्रकुमार जैन की भूमिका (डा० मंगलदेव शास्त्री) १२० प्रकाशक जैन ग्रंथमाला, काही विजयादशमी ०२०१२
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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