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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद 'मोक्खपाहड़' में श्री कुन्द्रकून्दाचार्य ने 'परमात्मा अथवा 'आत्मा' के इसी स्वरूप का वर्णन करते हुए लिखा है : "तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो हु देहीणं । तत्थ परो माइज्जइ अंतोवारण चयहि बहिरप्पा ॥४॥ अक्खाणि बहिरप्पा अन्तर अप्पाह अप्पसंकप्पो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भएणए देवो ॥॥॥" अर्थात् प्रात्मा तीन प्रकार का है- अन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा। अन्तरात्मा के उपाय से बहिरात्मा का परित्याग करके परमात्मा का ध्यान करो। इन्द्रियों के स्पर्शनादि के द्वारा विषय ज्ञान कराने वाला बहिरात्मा होता है। इन्द्रियों से परे मन के द्वारा देखने वाला, जानने वाला 'मैं हूं' ऐसा स्वसंवेदन गोचर संकल्प अन्तरात्मा होता है। पुन: द्रव्य कर्म (ज्ञानावरणादिक) भावकर्म (रागद्वेषमोहादिक) नोकर्म (शरीर आदि) कलंक मल रहित अनंतज्ञानादिक गुण सहित परमात्मा होता है। आपने परमात्मा की विशेषताओं को उल्लेख करते हुए पुनः कहा है कि परमात्मा मल रहित, शरीर रहित, इन्द्रिय रहित, केवल ज्ञानी, विशुद्ध, परम पद में स्थित, सब कर्मों को जीतने वाला, कल्याणकारी, शाश्वत और सिद्ध है : मलरहिओ कलचत्तो अणिदियो केवलो विसुद्धप्पा। परमेट्टी परमजिणों सिवंकरो सासओ सिद्धो॥६॥ इस प्रकार जैनमत में परमात्मा के अस्तित्व की कल्पना प्रारम्भ में ही कर ली गई थी, भले ही उसकी संख्या एक न होकर अनेक हो, भले ही वह नियामक और भिन्न वस्तु न स्वीकृत होकर, आत्मा का ही विकसित और शुद्ध, निविकार रूप माना गया हो। श्री चन्द्रधर शर्मा ने तो लिखा है कि आगे चलकर "वर्धमान महावीर ने परमात्मा का स्थान ले लिया और उन्हें 'शुद्धात्मा' कहा गया। वे इन्द्रिय, वाणी और विचार से परे हो गये और अनिर्वचनीय शुद्ध चैतन्यस्वरूप धारण कर लिया, जिन पर किसी भी प्रकार के विकार का प्रभाव नहीं पड़ सकता। जिस प्रकार समस्त जल समुद्र से मेघ द्वारा आता है, नदियों के रूप में बहता है और अन्तत: नदियों के द्वारा सागर में मिल जाता है, इसी प्रकार ममस्त सापेक्षिक दृष्टिकोण परमतत्व से उद्भूत होकर उसी में लय हो जाते हैं।" और प्रसिद्ध दार्गनिक डा. राधाकृष्णन ने तो यहाँ तक कह डाला है कि "मेरे विचार से जैन तर्कवाद ब्रह्मवादी अादर्गवाद की ओर ले जाता है और जहाँ तक जैन इसे अस्वीकार करते हैं, वे अपने तर्क के प्रति स्वयं झूठे बन जाते हैं। मुझे इस विवाद में यहाँ पड़ने की आवश्यकता नहीं, किन्तु इतना १. Shri Chandra Dhar Sharma-Indian Philosophy-Page 72. P. "In our opinion the Jain logic leads us to a monistic idealism and so far as the Jains shrink from it, they are untrue to their logic." - Dr. S. Radbakrishnan-Indian Philosophy, Page 80s.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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