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________________ २३८ अपभ्रश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद पुष्टता-दुर्बलता, शीत-ताप और सुरूपता-कुरूपता को आत्मा के साथ जोड़ें देते हैं। यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है, इसे सभी जैन कवि बहुत पहले से कहते आए हैं। संत सुन्दरदास भी आत्मा और ब्रह्म की अद्वयता में विश्वास करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि सुन्दरदास जी उपनिषदों के समान आत्मा से ही विश्व की उत्पत्ति मानते हैं। 'सर्वांग योग प्रदीपिका' के 'अथ सांख्य योग नाम चतुर्थोपदेशः' में उन्होंने अपने इन विचारों को विस्तार से अभिव्यक्त किया है। लेकिन जिस प्रकार संत सुन्दरदास ने ब्रह्म को सर्वव्यापक मानते हुए भी घट में स्थित बताया है, वैसे ही बनारसीदास तथा अन्य जैन कवियों ने भी विराट् सत्ता को देह में ही खोजने की बात कही है। संत सुन्दरदास कहते हैं कि 'हे देव ! तुम सर्व व्यापक हो। तुम्हारी आरती कैसे करूँ ? तुम्हीं कुम्भ हो और तुम्हीं नीर। तुम्हीं दीपक हो और तुम्ही धूप । तुम्ही घण्टा हो और तुम्ही नाद । तुम ही पत्र, पुष्प और प्रकाश हो तथा तुम ही जल, स्थल, पावक और पवन हो । अतएव मौन रूप से तुम्हारा ध्यान ही श्रेयस्कर है : आरती कैसे करौं गुसाई, तुमही व्यापि रहे सब ठाई। तुमहीं कुंभ नीर तुम देवा, तुमहीं कहियत अलख अभेदा । । तुम ही दीपक धूप अनूपं, तुम ही घंटा नाद स्वरूपं ॥ . तुम ही पाती पुहुप प्रकासा, तुम ही ठाकुर तुमहीं दासा। .. तुम ही जल थल पावक पौना, सुंदर पकरि रहे मुख मौना ॥२५॥ . . (संत सुधासार, पृ०.६६३) यह व्यापक तत्व प्रत्येक घट में विद्यमान है, अतएव उसे बाहर खोजना ठीक नहीं। उसे तो दिल में ही गोता लगाकर प्राप्त कर लेना चाहिए : .. सुन्दर अन्दर पैस करि, दिल में गोता मारि । तौ दिल ही मौं पाइए, साई सिरजनहार ॥१॥ (संत सुधासार १-६३७) आत्मा की बिरहानुभूति का वर्णन बनारसीदास और सन्त सुन्दरदास दोनों ने किया है। बनारसीदास की आत्मा में 'कन्त मिलन का चाव' पैदा होता बिरहिणी 'जल बिन मीन' के समान तड़पती है। प्रिय घट में ही विद्यमान है. फिर भी भेंट नहीं हो पाती । इससे बढ़कर और विडम्बना क्या हो सकती है? सन्त सुन्दरदास ने 'सुन्दर विलास' के 'विरहिन उराहने का अंग' शीर्षक के अन्तर्गत आत्मा की विरह दशा का ही वर्णन किया है। इसी प्रकार उनकी साखियों में 'अथ विरह को अंग' में विरह की अभिव्यंजना हुई है। सन्त सन्दरदास की आत्मा कभी प्रिय वियोग से चिन्तित हो उठती है और कभी आपुनो रूप प्रकाश करै, जब जारि करै तब और को औरा । तैसेहि सुन्दर चेतनि श्रापु सु, आपुकौं नाहिन जानत बौरा ॥१॥ (संत सुधासार [खण्ड १], पृ. ६२६ )
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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