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________________ देशम अध्याय २३७ से देखते और इनकी ज्ञान गरिमा, साधुता तथा रचना पाटव की बड़ी सराहना करते थे।"' ऐसी स्थिति में दोनों के सत्संग का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। शरीर, आत्मा, ब्रह्म, जगत आदि के सम्बन्ध में दोनों के विचार बहुत कुछ मिलते जुलते हैं। अन्तर केवल इतना है कि बनारसीदास ने जैन दर्शन की शब्दावली का प्रयोग किया है और संत सुन्दरदास ने सीधे ढंग से या उपनिषदों की शब्दावली में वही बात कही है। जैसे, शरीर और प्रात्मा एक दूसरे से भिन्न हैं। शरीर जड़ है और आत्मा चेतन। शरीर नाशवान है और आत्मा अमर । लेकिन भ्रम से लोग शरीर को ही आत्मा जान लेते हैं और शरीरजन्य सुख दुःखों को आत्मा के सुख दुख मान लेते हैं। इस तथ्य पर दोनों सहमत हैं। बनारमीदाम कहते है कि चेतन और पुद्गल अनादि काल से एक दूसरे में ऐसे मिल गए हैं जैसे तिल में तेल और खली। जैसे लोहा चम्बक की ओर आकृष्ट होता है वैसे ही आत्मा (बहिरात्मा) शरीर के रस से ही लिपटता रहता है। परिणाम यह होता है कि जड़ (शरीर) ही प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ता है और चेतन आत्मा की सत्ता पर पर्दा पड़ जाता है। इस विषम स्थिति को तो केवल सुविचक्षण जन ही जान पाते हैं, अन्य लोग जड़ में ही चैतन्य भाव का आरोप कर लेते हैं। लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि जिस प्रकार घट स्थित घी को घट कह देने मात्र से घी घट नहीं हो जाता, वैसे ही वर्ण आदि नामों से जीव जड़ता (शरीरत्व ) को नहीं प्राप्त हो जाता है। जिस प्रकार तृण, काठ, बाँस तथा अन्य जंगली लकड़ी के जलते सयय अग्नि विविध प्रकार की दिखाई पड़ती है, किन्तु सभी रूपों में अग्नि का दाहकता का गुण विद्यमान रहता है, उसी प्रकार जीव विभिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आकार का प्रतीत होता है, किन्तु उस चेतन तत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान होने पर सभी में एक ही अलख और अभेद तत्व का दर्शन होता है। संत सुन्दरदास भी अग्नि की ही उपमा देते हए कहते हैं कि जिस प्रकार पावक काठ के संयोग से काठ रूप हो जाती है और दीर्घ काठ में दीर्घ रूप तथा चौड़ी काठ में चौड़ी दिखाई पड़ती है, किन्तु जब सम्पूर्ण काठ भस्म होकर अग्नि में परिणत हो जाती है तो पूरी अग्नि एक ही रूप में दिखाई पड़ती है, उसी प्रकार प्रत्येक शरीर में विद्यमान आत्मा को पागल पुरुष जान नहीं पाते। परिणाम यह होता है कि शरीर की १. राजस्थानी भाषा और साहित्य, पृ० २२२ । २. बनारसी विलास (अध्यात्म बत्तीसी), पृ० १४४ । ३. ज्यों घट कहिए धीर को, घट को रूप न घीव । त्यों बरनादिक नाम सौं, जड़ता लहे न जीव || (नाटक समयसार, पृ०७७) नाटक समयसार, पृ० ३६। जैसेंहि पावक काठ के योग ते, काठ सौ होय रह्यौ इकठौरा । दीरघ काठ मैं दीरप लागत, चौरे से काठ में लागत चौरा।।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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