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________________ २३६ व्यग्रता का अनुभव करती है, कभी आँसू बहाती है तो कभी उसकी उद्वेग, विस्मृति और मरण तक की स्थिति आ जाती है । सुन्दर जी कभी हो कहते है दशम अध्याय : बिरहिन है तुम क्यौं न मिलौ मेरे दरस पियासी । पिय अविनासी ॥ ( सुन्दर दर्शन, पृ० २६५ ) और कभी प्रिय के कारण बारह मास तड़पने की बात कहते हैं। सुन्दर पिय के कारणों, तलफै बारह मास । निस दिन लै लागी रहै, चातक की सी प्यास ॥ ( सुन्दर दर्शन, ०२६५ ) गई है : वियोग में भूख, प्यास और नींद भी दूर हो भूख पियास न नीदड़ी, बिरहिन अति बेहाल ! सुन्दर प्यारे पीव बिन, क्यों करि निकसै साल ॥ (सुन्दर दर्शन, ०२६८ ) --: अन्य सन्त कवि : विचार और अभिव्यक्ति की यह समानता न केवल सन्त सुन्दरदास और बनारसीदास में ही मिलती है और न केवल मुनि रामसिंह, कवीर और सन्त आनन्दघन ने ही समान ढंग से रहस्यदशा का वर्णन किया है, अपितु प्रायः सभी जैन और सन्त कवियों में विचार-साम्य मिलता है। प्रायः सभी साधक एक ही सत्य पर पहुंचे हैं । मत, पन्थ या सम्प्रदाय के भेद से निष्कर्ष में अन्तर नहीं आने पाया है। रैदास, दादू, गरीबदास, रज्जब, घरमदास, मलूकदास घरनीदास, जगजीवन, दरियासाहब, गुलाल साहब, भीखा साहब और चरनदास आदि सन्तों ने भी रहस्य भावना की अभिव्यक्ति लगभग जैन कवियों के समान ही की है । लगभग सभी सन्तों ने ब्रह्म को घट में स्थित माना है, गुरु को विशेष महत्व दिया है, आत्मा-परमात्मा का सम्बन्ध प्रिय प्रेमी के रूप में दिखाया है, बाह्याचार की निन्दा की है, हिन्दू-मुस्लिम एकता पर बल दिया है, मुल्ला और पुरोहित के पाखण्ड और भेद नीति का विरोध किया है, मन पर नियन्त्रण रखना आवश्यक बताया है और शास्त्रज्ञान की अपेक्षा स्वसम्वेदन ज्ञान का सहारा लिया है।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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