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________________ सप्तम अध्याय स्वसंवेदन ज्ञान : रत्नत्रय की उपलब्धि किमी बाह्य अनुष्ठान या पुस्तकीय ज्ञान से नहीं हो सकती है। वह स्वसंवेद्य है, स्वानुभूति का विषय है। इसीलिए प्रत्येक साधना में स्वसंवेदन ज्ञान को महत्वपूर्ण स्थान मिला है। उसे परम रस या आनन्द का कारण माना गया है। पूज्यपाद ने आत्मा का स्वरूप विश्लेषण करते समय उसको स्वसंवेदनोय' कहा है :'स्वसंवेदनमुन्यक्तन्ननुमान निरत्ययः ।। २१ ॥ (इष्टोपदेश) आखिर स्वसंवेदन है क्या? जैन मान्यता के अनुसार योगी का अपने ही द्वारा अपने स्वरूप का ज्ञेयपना और ज्ञातपना स्वसंवेदन है। इमी को प्रात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव भी कहा गया है : 'वेद्यत्वं वेदकत्वं च यत्त्वस्य स्वेन योगिनः । तत्स्वसंवेदनं प्राहुरात्मानोऽनुभवं दृशम् ।। ( इष्टोपदेश) कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा स्वानुभूति से जाना जा सकता है। उसके लिए अन्य विधान की आवश्यकता नहीं। स्वसंवेदन ही आत्मा को जानने का श्रेष्ठ साधन है। चित्त की एकाग्रता से इन्द्रियों को नियन्त्रित करके आत्मज्ञानी आत्मा के द्वारा आत्मा की आराधना करता है, यही स्वसंवेदन कहलाता है। देवसेन ने 'तत्वसार' में कहा है कि स्वसंवेदन के द्वारा मन के संकल्प मिट जाते हैं। इन्द्रियों के विषय व्यापार रुक जाते हैं और योगी का आत्मध्यान के द्वारा अपना ब्रह्मस्वरूप प्रकट हो जाता है। इसलिए आत्मध्यान उपादेय है, जिसका निरन्तर अभ्यास करना चाहिए। स्वसंवेदन को ही प्रात्मध्यान, आत्मज्ञान या प्रत्यक्षानुभूति कहा गया है। द्यानतराय के शब्दों में : आप आप में आप, आपको पूरन धरता। सुसंवेद निज धरम, करम किरिया को करता ॥५॥ (धर्मविलास-शानदराक, पृ० ६५) जब तक स्वसंवेदन की महत्ता का ज्ञान नहीं होता, तभी तक व्यक्ति अन्यान्य साधनों का आश्रय ग्रहण करने की चेष्टा करता है। किन्तु इसके प्रकट होने पर सभी विधान फीके और तत्वहीन प्रतीत होने लगते हैं, क्योंकि अन्य किसी विधान से मोक्ष नहीं मिल पाता। दान से भोग भले ही प्राप्त १. थक्के मण संकप्पे रुद्ध अक्खाण विसयवावारे । पगरह बंभसरुवं अप्पा झाणेण जोईणं ॥२६॥ (तत्वसार)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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