SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद हो जाय, तप से इन्द्र-पद भले ही मिल जाय, किन्तु वीतरागस्वसंवेदन निर्विकल्प ज्ञान के बिना जन्म मरण से रहित मोक्ष पद नहीं प्राप्त हो सकता। और 'निजबोध' या स्वसंवेदन के बिना अन्य साधन से मोक्ष मिल भी कैसे सकता है ? क्या 'बारि मथे घृत' सम्भव है ? या पानी के मथने से हाथ तक चिकना हो सकता है ?' स्वसंवेदन ज्ञान के प्रकट होने पर जीव रागादि विषयों का स्वतः त्याग कर देता है। वे जीव के निकट आते ही नहीं। कहीं दिनकर के प्रकाश के समक्ष अंधकार आ सकता है ? जीव इस आत्मज्ञान को प्राप्त करने के पश्चात् अन्य किसी वस्तु की कामना भी नहीं करता। मरकत मणि के प्राप्त कर लेने पर कांच के टुकड़ों की इच्छा कौन करेगा?' चित्तशुद्धि पर जोर : रत्नत्रय की उपलब्धि या आत्म-स्वरूप के परिज्ञान के लिए चित्त का शद्ध होना अनिवार्य है। मलपूर्ण और विकारयुक्त चित्त से आत्मा का दर्शन नहीं किया जा सकता। कहीं मलिन दर्पण में मुख दिखलाई पड़ सकता है। तक चित्त निर्विकार नहीं है, तब तक आजीवन तप करने से या किसी भी प्रकार के बाहरी वेष विन्यास या आचरण से सिद्धि नहीं प्राप्त हो सकती। सिद्धि का एक ही मार्ग है-भाव की विशुद्धि। इसीलिए योगीन्द्र मनि कहते हैं कि जिसने निर्मल चित्त से तपश्चरण नहीं किया, उसने मानो मनुष्य जन्म लेकर आत्मा को ही धोखा दिया, क्योंकि जीव जो चाहे करे, जहाँ इच्छा हो जाय, किन्तु चित्त शुद्धि के बिना मोक्ष कदापि नहीं प्राप्त हो सकता। मुनि रामसिंह तो ऐसे योगी को फटकारते हैं जिसने सिर तो मडा लिया, किन्तु चित्त को नहीं मुड़ाया, क्योंकि चित्त मुण्डन से ही संसार का खण्डन हो सकता है, अन्यथा नहीं : मुण्डिय मुण्डिय मुण्डिया। सिरु मुंडिउ चित्तु ण मुण्डिया। चित्तई मुण्डणु जिं कियउ । संसारह खण्डगु तिं कियउ ॥१३॥ (दोहापाहुड) २. १. णाणु विहीणहं मोक्ख पउ जीव म कासु वि जोह। बहएं सलिल विलोलियई करु चोप्पडउ ण होह ॥४॥ (परमा०, पृ० २१६) अप्पा मिल्लिवि गाणमउ चित्ति ण लग्गइ अण्ण । मरगउ जें परियाणियउ तहुं कच्चे कउ गएणु ॥७॥ (परमा०, पृ० २२०) ३. जेण ण चिएणउ तव-यरगु णिम्मलु चित्तु करेवि । अप्पा वंचिउ तेण पर माणुस जम्मु लहेवि ॥१३५॥ जहिं भावइ तहिं जाहि जिय जं भाबइ करि तं जि। केम्वइ मोक्खु ण अस्थि पर चिचई सुद्धि ण जं जि ॥१७॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy