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________________ २६६ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद म्यक्ति में जब तक अज्ञानावस्था रहती है, तब तक वह इनको आत्मा से भिन्न पर पदार्थ मानता रहता है। किन्तु सम्यक् ज्ञान के उदय होने पर उसे आत्मा और रत्नत्रय की अभिन्नता का भान हो जाता है। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि आत्मा को ही दर्शन और ज्ञान समझो, आत्मा ही चरित्र है। संयम, शील, तप और प्रत्याख्यान भी आत्मा ही है : अप्पा दंसणु णाणु मुणि अप्पा चरणु वियाणि । अप्पा संजमु सील तउ अप्पा पच्चक्खाणि ॥ ८१॥ ( योगसार, पृ० ३८६) मुनि रामसिंह ने भी कहा है कि दर्शन और केवल ज्ञान ही आत्मा है और सब तो व्यवहार मात्र है। यही त्रैलोक्य का सार है। अतएव इसी की पाराधना करनी चाहिए।' रत्नत्रय ही मोक्ष: रत्नत्रय ही मोक्ष है। हम पहले ही कह आये हैं कि मोक्ष अलग से कोई एक पदार्थ नहीं है। आत्मा का अपने स्वरूप का जानना और कर्म कलंक मुक्त होना ही मोक्ष है। रत्नत्रय की उपलब्धि से ही यह सम्भव है । अतएव रत्नत्रय ही मोक्ष हुआ। जब तक जीव इस सत्य को नहीं जान पाता, तभी तक संसार में भ्रमण करता रहता है और पुण्य पाप किया करता है। योगीन्दु मुनि ने कहा है कि जो राग द्वेष और मोह से रहित होकर तीन गुणों (सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चरित्र) से युक्त होता हुआ आत्मा में निवास करता है, वह शाश्वत सुख का पात्र होता है। यही नहीं रत्नत्रय युक्त जीव ही उत्तम पवित्र तीर्थ है और वही मोक्ष का कारण है अन्य मन्त्र तन्त्र मोक्ष के कारण नहीं हो सकते। इसी का समर्थन करते हुए पाण्डे हेमराज भी कहते हैं कि : पढ़त ग्रन्थ अति तप तपत, अब लौं सुनी न मोष । दरसन ज्ञान चरित्त स्यौं, पावत सिव निरदोष ॥२७॥ (उपदेश दोहाशतक ) अप्पा दंसणु केवलु वि अण्णु सयलु ववहारु । एक्कु सु जोइय झाइयइ जो तइलोयहं सारु ।। ६८।। (दोहापाहुड़) २. तिहिं रहियउ तिहिं गुण सहिउ जो श्रपाणि वसेइ । सो सासय सुह भायणु वि जिणवर एम भणेइ ।। ७८॥ रयणत्तय संजुत जिउ उत्तिम तित्थु पवित्त । मोक्ख कारण जोइया अण्णु ण तन्तु ण मन्तु || ८३ ।। (योगसार, पृ० ३०८-८९)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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