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________________ १७० अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद भैया भगवतीदास ने 'ईश्वर निर्णय पचीसी' में अवतारवाद का खण्डन किया है। उन्होंने लिखा है कि ईश्वर-ईश्वर सभी कहते हैं, किन्तु ईश्वर को कोई पहचानता नहीं। ईश्वर का दर्शन तो केवल सम्यक्दृष्टि वाला पुरुष ही कर सकता है । विष्णु, महादेव या कृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते : ईश्वर ईश्वर सब कहैं, ईश्वर लखै न कोय । ईश्वर तो सो ही लखै, जो समदृष्टी होय ॥२॥ X जो पालक सब सृष्टि को, विष्णु नाम भूपाल । सो मारयो इक बान तै, प्रान तजे ततकाल ॥२०॥ महादेव वर दैत्य को दीनो होय दयाल । आपन पुन भाजत फिर थो, राखि लेहु गोपाल ॥ २१ ॥ जिनको जग ईश्वर कहै, ते तो ईश्वर नाहिं ।। ये है ईश्वर ध्यावते, सो ईश्वर घट माहिं ।। २२ ॥ ईश्वर सो ही आत्मा, जाति एक है तन्त। कर्म रहित ईश्वर भए, कर्म सहित जग जन्त ॥ २३ ॥ (ब्रह्मविलास-ईश्वर निर्णय पचीसी, पृ० २५६) आनन्दघन ने भी ब्रोकता का प्रतिपादन किया है, किन्तु अवतारवाद का निषेध किया है। उनका कहना है कि राम कहो या रहमान, कृष्ण कहो या महादेव, पार्श्वनाथ कहो या ब्रह्मा, ब्रह्म एक है। उसी के ये अनेक नाम हैं। जिस प्रकार मिट्टी के अनेक पात्रों में मृत्तिका रूप में एक ही तत्व का अस्तित्व रहता है उसी प्रकार एक अखण्ड ब्रह्म के अनेक नाम रूप कल्पित कर लिए जाते हैं । वस्तुतः जो जिन पद में रमण करता है वही राम है, जो ( रहम ) दया करता है वही रहमान है, जो कर्मों का कर्षण करता है वह कृष्ण है, जो निर्वाण प्राप्त .कर चुका है वही महादेव है, जो ब्रह्मरूप को स्पर्श करता है वह पार्श्वनाथ है, जो ब्रह्म को जान लेता है वही ब्रह्मा है। एक चेतन आत्मा ही विविध नामधारी है। राम कहो रहमान कहो कोउ, कान कहो महदेव री। पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री। भाजन मेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसें खण्ड कल्पना रोपित, आप अखण्ड सरुप री। निज पद रमै राम सो कहिए, रहिम करै रहिमान री। करसे करम कान सो कहिए, महादेव निर्वाण री। परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हें सो ब्रह्म री। इह विध साघो आप अानन्दघन, चेतनमय निकर्म री ।। ६७ ॥ (आनन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३८८)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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