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________________ षष्ठ अध्याय १७१ ब्रह्मानुभूति जनित आनन्द : ब्रह्मानुभूति जनित आनन्द अनिर्वचनीय होता है । वह गूंगे का गुड़ है | जो उसका अनुभव करते हैं, वही जान पाते हैं, दूसरों पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । 'सयना वयना' भले ही उसका कोई संकेत कर दे । वस्तुतः वह वाणी का अविषय है । इसीलिए काव्य में उसकी व्यंजना की जाती है। हाँ, यह अवश्य है कि इन्द्रियजन्य सुखों से वह मूलतः भिन्न होता है । सांसारिक सुख या इन्द्रियजन्य सुख क्षणिक होते हैं, परिणाम में दुःखदायी होते हैं, किन्तु अतीन्द्रिय सुख या ब्रह्मानन्द शाश्वत और स्थायी होता है । सांसारिक सुख से उसकी तुलना ही नहीं की जा सकती । योगीन्दु मुनि कहते हैं कि शिव दर्शन में जो सुख प्राप्त होता है, वह अन्यत्र तीनों लोकों में नहीं प्राप्त हो सकता। यही नहीं मुनि निजात्मा का ध्यान करते हुए, जिस प्राप्त होते हैं, इन्द्र कोटियों देवियों में रमण करता हुआ भी उस मुख को नहीं को प्राप्त कर पाता : जं सिव दंसण परम-सुहु पावहि मागु करन्तु । तं सुहु भुवणि वित्थ गवि भेल्लिवि देउ अन्तु ॥ ११६ ॥ जं मुणि लहइ अणन्तु सुहु गिय अप्पा फायन्तु । तं सुहु इन्दु वि वि लहइ देविहिं कोडि रमन्तु ॥ ११७ ॥ (परमात्मप्रकाश, प्र० महा०, पृ० ११८- ११६ ) 'दोहा पाहुड' में मुनि रामसिंह भी ठीक यही बात कहते हैं : -- जं सुहु विसयपरन्मुहउ यि अप्पा फायन्तु । तं सुहु इन्दु विउ लहइ देविहिं कोडि रमन्तु ॥ ३ ॥
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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