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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद शरीअत, तरीकत, हकीकत और मारफत आदि चार अवस्थाओं को मान्यता दी गई है। शरीअत का अर्थ है-धर्म ग्रन्थों के विधि निषेधों का सम्यक् पालन। तरीकत वह अवस्था है जब साधक बाह्य क्रिया कलाप से मुक्त होकर केवल हृदय की शुद्धता द्वारा भगवान का स्मरण करता है। हकीकत अवस्था में साधक तत्व दृष्टि सम्पन्न और त्रिकालज्ञ हो जाता है। मारफत अर्थात् सिद्धावस्था में साधक की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है। ये चार अवस्थाएँ वस्तुतः आत्मा के परमात्मा के निकट पहुंचने के चार सोपान ही हैं। यहाँ अन्तर केवल इतना है कि मारफत अवस्था में आत्मा, परमात्मा में अपने अस्तित्व को विलीन कर देता है, उसकी अपनी कोई पृथक् सत्ता नहीं रह जाती, जब कि जैन आत्मा, किसी दूसरी शक्ति में अपने को लोन न करके स्वतः ब्रह्म या परमात्मा की उपाधि से विभूषित हो जाता है। पाश्चात्य विचारकों ने भी आत्मा के विकास के कतिपय सोपानों की चर्चा की है। प्रसिद्ध विद्वान श्री एवेलिन अण्डरहिल ने लिखा है कि आत्मा को परमात्मा के साथ एकाकार होने के लिए कई अवस्थाओं को पार करना पड़ता है। प्रथम अवस्था को उन्होंने 'आत्मा का दैवी सत्य की चेतना के प्रति जागरण' कहा है। यह आत्मा का परमात्मोन्मुख होने का प्रथम चरण है। इस अवस्था में साधक विश्व के संकीर्ण क्षेत्र से निकलकर विस्तृत क्षेत्र में प्रवेश करता है और उसका जीवन विराट ब्रह्म तत्व के चिन्तन की ओर मुड़ जाता है। श्री जे. बी० प्रेट (J. B. Pratt) ने इस अवस्था को 'स्वाद का परिवर्तन और मानव अनुभूति का महत्वपूर्ण क्षण' कहा है। 'आत्मा का शुद्धीकरण' दूसरी अवस्था है। इस समय प्रात्मा को दैवी सत्य और सौन्दर्य का अनुभव तथा अपनी परिमितता और अपूर्णता का ज्ञान होता है और वह अन्यान्य विघ्नों, बाधाओं और अवरोधों से भी अवगत होता है, जिनके कारण वह परमात्मा से दूर रहा। वह संयम और साधना के द्वारा अवरोधों को विच्छिन्न करके परमात्मा के निकट जाने के लिए प्रयत्नशील भी होता है। इसको हम 'अन्तरात्मा' कह सकते हैं। ब्रह्मानुभूति के लिए यह आवश्यक है कि उसके मार्ग में जो विरोध हों अथवा जिन शक्तियों ने आत्मा को उसके स्वरूप से वंचित कर रखा है उनको पहचाने और उन्हें दूर भी करे। यह कार्य इसी अवस्था में पूर्ण होता है। अण्डरहिल ने लिखा है कि 'यह अवस्था १. आचार्य रामचन्द्र शुक्न-जायसी ग्रन्थावली की भूमिका, पृ० १४२ । The awakening of the self to counciousness of Divine Reality-E. underhill-M[ysticism, p 199. 3. "It is a change of taste, the most momentous one that ever occurs in human experience '— The Religious Consciousness -chap. XIII: +. The purification of the Self'. -E. Underhill-Mysticism, page 169.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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