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________________ १५५ सर्वथा नित्य, शुद्ध, अद्वितीय, निर्गुण और सर्व व्यापक ब्रह्म का अंश माना है, वह जैनियों को अमान्य है । आत्मा, परमात्मा या ब्रह्म की अवस्था को प्राप्त होकर भो किसी दूसरी शक्ति में मिल नहीं जाता और न अपने अस्तित्व को ही समाप्त कर देता है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन जाने पर दूसरे तत्वों से प्रभावित हो लोकाकाश पौर अलोकाकाश का सम्प ज्ञान रखते हुए, स्वतन्त्र रूप में विचरण करता रहता है। योगीन्द्र मुनि कहते हैं कि जो ज्ञानावरणादि कर्मों को नाश करके और सभी देहादि परद्रव्यों को छोड़ कर केवल ज्ञानमय श्रात्मा को प्राप्त हुआ है, उसे शुद्ध मन से परमात्मा जानो : अप्पा लद्वउ गाणमउ कम्म विमुक्कें जेण । मेलिस विदव्वु परु सो पर मुदि मणे ||१५|| (परम ममकाश, प्र० महा० ) इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि अवस्था या पर्याय की दृष्टि से आत्मा की विविधता है, किन्तु स्वरूप या द्रव्य की दृष्टि से वह एक ही है। आत्मा जब तक कर्म मल से आच्छादित रहता है, बहिरात्मा कहा जाता है, नहीं जब स्वपर भेद को जान लेता है, अन्तरात्मा हो जाता है और पूर्ण ज्ञानी बनने पर वही 'परमात्मा' की उपाधि से विभूषित होता है। भैया भगवतीदास एक चेतन द्रव्य के त्रिविध रूपों का वर्णन करते हुए कहते हैं। -- षष्ठ अध्याय 'एक जु चेतन द्रव्य है, तिनमें तीन प्रकार । बहिरात अन्तर तथा परमातम पद सार ||२|| बहिरात ताको कहै, लखै न ब्रह्म स्वरूप । मग्न रहे पर द्रव्य में मिथ्यावन्त अनूप ||३|| अन्तर आतम जीव सो, सम्यक् दृष्टी होय । चौथे अरु पुनि बारहवें गुणस्थानक लों सोय || ३ || परमातम पद ब्रह्म को, प्रगट्यो शुद्ध स्वभाय । लोकालोक प्रमान सब, फलकें जिनमें आय ||५|| द्यानतराय भी कहते हैं : 5 तीन भेद व्यवहार सौं, सरब जीव सब ठाम । बहिरन्तर परमातमा, हिचे चेतनराम ॥४१॥ , १०२२७) ( धर्मविदास – अध्यात्मपंच सिका, पृ० १६२ ) जनेतर सम्प्रदायों में आत्मा की अवस्थाओं का वर्णन अन्य भारतीय तथा पाश्चात्य विचारकों और साधकों ने भी आत्मा की अवस्थाओं को स्वीकृति दी है। कुछ सापक इसके तीन सोपान मानते हैं और कुछ पाँच सूफियों की चार अवस्थाएं प्रसिद्ध हैं। भारतीय सूफी चार मंजिलें और उन मंजिलों की बार मवस्थाओं में विश्वास करते हैं उनमें नासूत, मजबूत, जबरूत और लाहूत, ये चार मंजिले मानी गई हैं। इसी प्रकार उनके द्वारा
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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