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________________ षष्ठ अध्याय १५७ मात्मा के अवास्तविक जीवन से बाम्नविर जीवन के प्रति महत्वपूर्ण और तीक्ष्ण मोड़ है, अपने घर को व्यवस्थित करने का प्रयास है और मन या बुद्धि को सत्य की पूर्व स्थिति में लाने का उपक्रम है।" आत्मा के शुद्धीकरण के दा पहलू हैंऋणात्मक और धनात्मक । प्रथम का तात्पर्य आत्मा का नामर, हानिकर एवं क्षणिक पदार्थों से मुक्त होना है। इसको हम अनामक्ति कह सकते हैं। दूसरे का तात्पर्य आत्मा का परमात्मा से मिलने के लिए प्रयाम है। इसे संयम या तप कह सकते हैं। 'तीसरी अवस्था आत्मा का द्युतिकरण या अवभासीकरण है। जब आत्मा शुद्धीकरण के द्वारा ऐन्द्रिय विषयों मे विरक्त हो जाता है और सत्य, ज्ञान आदि गुणों से विभूषित हो जाता है तो वह द्युतिकरण की अवस्था कही जाती है। इस दशा में परमात्मा की अनुभूति होती है, किन्तु आत्मा तदाकार नहीं हो जाता । इसे हम जैनियों का परमात्मा' कह सकते हैं। प्रात्मा सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चरित्र से विभूषित होकर परमात्मा बन जाता है। इसके पश्चात् उसे किसी दूसरी शक्ति में मिलने की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि वह स्वयं 'पूर्ण ब्रह्म' बन चुका है। लेकिन अंडरहिल ने इस पश्चात् भी दो अन्य अवस्थाओं की कल्पना की है। उन्होंने कहा है कि आत्मा के जागरण, शुद्धीकरण और द्युतिकरण के पश्चात् 'पूर्ण शुद्धीकरण' की अवस्था आती है। इसको 'रहस्यमय मृत्यू' (Mystic Death) अथवा 'आत्मा की अंध रात्रि' ( Dark Night of the soul ) भी कहा गया है। इस अवस्था में आत्मा की वैयक्तिक सत्ता और कामनामों का अवसान हो जाता है। वह पूर्ण निष्काम और निष्क्रिय बन जाता है। इसके पश्चात् परमात्मा से तदाकार होने की अवस्था आती है। इस पांचवी दशा को प्राप्त होना ही प्रत्येक रहस्यवादी साधक का चरम लक्ष्य होता है। इस अवस्था में परमात्मानुभूति अथवा तज्जनित आनन्द ही नहीं प्राप्त होता, अपितु आत्मा परमात्मा में ही लीन हो जाता है। जैन साधकों के ही समान महाराष्ट्र के सन्तों ने भी आत्मा का विभाजन और वर्गीकरण किया है। सन्त रामदास के 'दासबोध' में आत्मा की चार अवस्थाओं या चार प्रकार के प्रात्मा का वर्णन मिलता है। उन्होंने 1. It is the drastic turning of the self from the unreal to the real life, a setting of her house in order, an orientation of the mind to truth.'-E. Underhill-Mysticism, page 204. 2. The Illumination of the Soul.-E. U. Mysticism-page 169. 3. 'The Final and Complete purification of the Self-The Self now surrenders itself, its individuality and its will completely. It desires nothing, asks nothing, is utterly passive and is thus prepared for'. -E. U. Mysticism-page 170.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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