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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद में कोई अन्तर नहीं समझ पाता। साधारण स्थिति में प्रत्येक जीव इसी अवस्था में रहता है । सृष्टि क्रम इसीलिए चलता रहता है और जीव एक योनि से दूसरी योनि में संक्रमण करता रहता है। आत्मा की दूसरी अवस्था अन्तरात्मा है। इस अवस्था में जीव अपने को पहचानने लगता है अर्थात् आत्मा और शरीर में भेद-ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। देहादि की भिन्नता का ज्ञान हो जाने से वह उसमें आसक्त नहीं होता, इसीलिए आत्मविद् हो जाता है। किन्तु पूर्णज्ञानी या पूर्णविद अब भी नहीं हो पाता। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि जो पुरुष परमात्मा को शरीर से भिन्न तथा केवल ज्ञानमय जानता हुआ परमसमाधि में स्थित होता है वह अन्तरात्मा अर्थात् विवेकी है : देह विभिण्णउ णाणमउ जो परमप्पु ठिएइ। परम समाहि परिठ्ठयउ पंडिउ सो जि हवेइ ॥१४॥ (परमात्मप्रकाश, प्र० महा०) स्वामी कार्तिकेय ने अन्तरात्मा के भी तीन भेद किए हैं-उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । उन्होंने कार्तिकेयानुप्रेक्षा में लिखा है कि जो जिनवाणी में प्रवीण है, शरीर और आत्मा के भेद को जानते हैं, आठ मद जिन्होंने जीत लिया है, वे उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य आदि तीन प्रकार के अन्तरात्मा कहे गए हैं। उत्कृष्ट अन्तरात्मा वे हैं जो पञ्च महाव्रत, संयुक्त धर्मध्यान, शुक्ल ध्यान में तिष्ठित तथा सकल प्रमादों को जीत चुके हैं।' श्रावक गुणों से युक्त, प्रमत्तगुणस्थानवर्ती, जिन वचन में अनुरक्त मुनि मध्यम अन्तरात्मा कहे जाते हैं। जघन्य अन्तरात्मा और बहिरात्मा में विशेष अन्तर नहीं हैं। संसारासक्त बहिरात्मा हैं और संसार की नश्वरता का ज्ञान रखते हुए भी जो उससे विमुख नहीं हो सके हैं, वे जघन्य अन्तरात्मा हैं। स्वामी कार्तिकेय का यह वर्गीकरण अधिक वैज्ञानिक नहीं प्रतीत होता, केवल कल्पना के बल पर ही आपने एक अवस्था के तीन भेद कर दिया है। परमात्मा, आत्मा की उस विशिष्ट अवस्था का नाम है, जिसे पाकर यह जोव अपने पूर्ण विकास को प्राप्त होता है और पूर्ण सुखी तथा पूर्ण ज्ञानी बन जाता है । आत्मा को इस तीसरी अवस्था को 'पर ब्रह्म' भी कह सकते हैं। लेकिन जैनियों का 'पर ब्रह्म' वेदान्तियों के 'ब्रह्म' से सर्वथा भिन्न है। जैन आचार्यों के मत से प्रत्येक आत्मा अपना स्वतन्त्र एवं पृथक् व्यक्तित्व रखता है। वह किसी एक ही सर्वथा अद्वैत, अखण्ड परमात्मा का अंश नहीं है। ब्रह्माद्वैतवादी वेदान्तियों ने संसारी जीवों के पृथक् अस्तित्व और व्यक्तित्व को न मानकर उन्हें जिस १. जो जिणवयणे कुसलो भेदं जाणन्ति जीवदेहणं । णिजियदुदृढमया अन्तरअप्पा य ते तिविहा ॥१६४|| पंच महन्वय जुत्ता धम्मे सुक्के वि संठिया णिच्च । णिजियसयलपमाया उक्किटा अन्तदा होति ॥१५॥ (कार्तिकेयानुप्रेक्षा)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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