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________________ चतुर्थ अध्याय का समाधान सम्भव नहीं । श्रतएव दूसरी विद्या परा विद्या की शरण लेनी पड़ती है । परा विद्या से व्यक्ति आत्मतत्व और परमात्मतत्व की पूर्ण ज्ञानप्राप्त करता है । इसी विद्या के द्वारा विवेकी पुरुष जान लेते हैं कि परमात्मा प्रदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षुः श्रोत्रादिहीन है। यह अपाणिपाद नित्य विभु, सर्वगत, अत्यन्त सूक्ष्म और अव्यय है तथा सम्पूर्ण भूतों का कारण है : पन्तदद्वेश्यसाद्युतपोवनं सुसूक्ष्मं तदव्ययं यद्भूतयोनि परिपश्यन्ति धीराः धिगम्यते सा परा विद्येति समुदायार्थः ।' परा और परा विद्या के इस विवेचन से विद्याएँ जैन साधकों द्वारा स्वीकृत व्यवहार और एक बौद्धिक अथवा ऐन्द्रियज्ञान की बोधक है आत्मज्ञान की प्रतीक । १८ नित्यं विभुं सर्वगतं निक्षरं यया विद्यया १३७ स्पष्ट हो जाता है कि ये दो विनय के समान ही हैं। और दूसरी स्वसंवेद्य अथवा बौद्ध दर्शन में भी इसी प्रकार सत्य के दो रूप बताए गए हैं। माध्यमिक सिद्धान्त की व्याख्या करते समय श्री चन्द्रफीति ने कहा है कि आचार्य नागार्जुन ने परम करुणा से प्रेरित होकर भगवद्वचन के सत्य द्वय की व्यवस्था की है। बुद्ध की धर्म दर्शना दो सत्यों का आश्रवण करती है - लोक संवृति सत्य और परमार्थ सत्य : द्व े सत्ये समुपाश्रित्य बुद्धानां धर्मदेशना । लोकसंवृति सत्यं च सत्यं च परमार्थतः ॥ (कावतार, २८,= ) प्रस्तुत करके सत्याभास वस्तु के स्वभाव दर्शन पका आरोपण लोक संवृत्ति सत्य वस्तु के यथार्थ रूप का चित्र को ही सब कुछ मानता है। संवृत्ति (कलना एक के लिए आवरण खड़ा करती है, दूसरी ओर पदार्थों में करती है । संवृत्ति निःस्वभाव एवं सत्यभानित पदार्थों का स्वभावेन तथा सत्य रूपेण प्रतिभासित करती है। लोकदृष्टि से हो इसकी सत्यता है । अतः इसे लोक संवृत्ति सत्य कहते हैं । यह प्रतीत्य समुत्पन्न है, इसलिए कृत्रिम है। दूसरी ओर परमार्थ सत्य अवाच्य है एवं ज्ञान का विषय नहीं है। वह स्वसंवेद्य है, उसका स्वभाव लक्षणादि से व्यक्त नहीं किया जा सकता। परमार्थ सत्य की विवक्षा से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि जैसे तिमिर रोग से आक्रान्त व्यक्ति अपने हाथ से पकड़े धान्यादि पुंज को के रूप में देखता है, किन्तु उसे शुद्ध दृष्टि वाला जिस रूप में देखता है, वही तत्व होता है, वैसे ही अविद्यातिमिर से उपहत अतत्व दृष्टा स्कंध, धातु, अभ्यतन का जो स्वरूप ( सांवृतिक) उपलब्ध करता १. देखिए – आचार्य नरेन्द्रदेव धर्म दर्शन ( पृ० ५४-५५ ) २. मोड: स्वभावतः पं तयाख्याति देव कृत्रिम | जगाद तत्संवृतिस्वति ॥ कार६२४८)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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