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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद है, उसे ही अविद्या वासना रहित बुद्ध जिस दृष्टि से देखते हैं, वही परमार्थ , सत्य है ।' १३८ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन साधना के समान बौद्ध दर्शन में सत्य के दो रूपों को स्वीकृति प्रदान की गई है । प्रथम संवृति सत्य है, जो व्यवहारनय के समान है और दूसरा परमार्थ सत्य है, जिसे 'निश्चयनय' कहा गया है । इतना ही नहीं कुन्दकुन्दाचार्य के समान बौद्ध दर्शन में भा यह स्वीकार किया गया है। किसवृति सत्य परमार्थ सत्य का प्रथम सोपान है । वस्तु के यथार्थ परिज्ञान के लिए पहले संवृति सत्य की जानकारी नितान्त आवश्यक है । ' व्यवहार के अभ्युपगम के बिना परमार्थ की देशना अत्यन्त अशक्य है । और परमार्थ के बिना निर्वाण का अधिगम अशक्य है ।' इस प्रकार प्रथम दूसरे का पूरक है, साध्य का साधन है | २ ऊपर वर्णित दर्शनों के अतिरिक्त अन्य अध्यात्म ग्रन्थों में भी इस प्रकार 'सत्य-द्वय को खोजा जा सकता है। धर्म की आधुनिक परिभाषाओं में भी इस प्रकार के भेद की झलक पाई जाती है, 'जिनमें से विलियम जेम्स सामाजिक और व्यक्तिगत इन दो दृष्टियों को मानते है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में, विशेष रूप से अध्यात्म क्षेत्र में, दोनों का अपना महत्व है । व्यावहारिक दृष्टि परमार्थनय की सहायक बनकर ही आती है । जब साधक को निर्मल दृष्टि प्राप्त हो जाती है, अन्तर्चक्षु खुल जाते हैं तो उसे व्यवहारनय की अपेक्षा नहीं रहती, उस समय वह स्वयं इसका परित्याग कर देता है । १. श्राचार्य नरेन्द्रदेव - बौद्ध धर्म दर्शन, पृ० ५५५ व्यावहारमनाश्रित्य परमार्थों न देश्यते । २. ३. परमार्थमनागभ्य निर्वाणं नाधिगम्यते ॥ ( म० का० २४, १० ) श्री योगीन्दु मृनि - परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना, पृ० १०१ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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