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________________ १३६ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद पड़ता है। यदि कोई गूढ़ प्रश्न समक्ष प्रा उपस्थित होता है तो उसका स्पष्टीकरण कोई भी अध्यापक या विद्वान् एक एक पक्ष लेकर ही करता है । एक साथ सम्पूर्ण प्रश्न का उत्तर देने की चेष्टा करने से प्रश्न के और अधिक जटिल बन जाने का भय रहता है। इसी प्रकार 'आत्मतत्व' जैसे विशद, गुरु गम्भीर विषय की जानकारी प्राप्त करने हेतु एक परिपार्श्व या तदनुकूल परिवेश की महती आवश्यकता रहती है। इस परिवेश का कार्य व्यवहारनय करता है। श्री अमृत चन्द्रसूरि ने कहा है कि अनादिकाल से ग्रज्ञानी जीव व्यवहारनय के उपदेश के बिना वस्तु के स्वरूप को समझ नहीं सकते, इसीलिए उनको व्यवहारनय के द्वारा समझाया जाता है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने व्यवहारनय की महत्ता एक दूसरे ढंग से सिद्ध की है। आपका कहना है कि जिस प्रकार एक अनार्य को किसी भी प्रकार की शिक्षा देने के लिए अनार्य भाषा को हो माध्यम बनाना पड़ता है, ठीक इसी प्रकार साधारण जन को 'परमात्म तत्व' का ज्ञान केवल व्यवहारनय से ही कराया जा सकता है : -- जह वि सक्कम ज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेदु । तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसक्कं ॥ ८ ॥ ( समयसार, पृ० १७ ) जैनेतर साहित्य में समान दृष्टि-द्वय : जैन साधकों के समान अन्य विद्वानों द्वारा सत्य के दो पक्षों को इसी प्रकार स्वीकार किया गया है। मुंडकोपनिषद् में आता है कि जब शौनक नामक प्रसिद्ध महागृहस्थ ने गिरा के पास विधिपूर्वक जाकर पूछा 'भगवन ! किसके जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है— ' कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति उत्तर स्वरूप आचार्य अंगिरा ने कहा कि इस रहस्य के जानने के पूर्व दो प्रकार को विद्याओं का परिचय प्राप्त कर लेना अनिवार्य है । एक है परा विद्या अर्थात् परमात्म विद्या और दूसरी है अपरा अर्थात् धर्म, अधर्म के साधन और उनके फल से सम्बन्ध रखने वाली विद्या - द्वे विद्ये वेदितव्यं इति स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च । परा च परमात्म विद्या । अपरा च धर्माधर्मसाधनतत्फलविषया ।' अपराविद्या के अन्तर्गत ऋगवेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष आते हैं, जो व्यक्ति को केवल बाह्यज्ञान का परिचय देकर विरत हो जाते हैं । इनके जान लेने मात्र से शौनक की समस्या १. वदेशम्। व्यवहारमेव केवलभवेति यस्तस्य देशना नास्ति । ६ । बुधस्य बोधनार्थम् श्री श्रमृतचन्द्रसूरिविरचित पुरुषार्थसिद्धयुगः, ०८ | २. देखिए उपनिषद्भाष्य, खंड १ के अन्तर्गत मुंडको० ( पृ० ११, १२, १३ )
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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