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________________ १२४ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद 'उपदेश दोहा शतक' में स्वानुभूति पर जोर दिया गया है, मन को वश में रखना अनिवार्य बतलाया गया है, कवल वाह्य तप को व्यर्थ सिद्ध किया गया है, घट में ही निरंजन देव का अस्तित्व स्वीकार किया गया है और तीर्थ भ्रमण को अलाभकर बताया गया है।' कवि का यह विश्वास है कि यदि 'शिव' सुख को प्राप्त करना है तो 'जप, तप, व्रत' आदि के वखेड़े में न पड़कर, कर्मों की निर्जरा हेतु, 'सोह' शब्द को प्रमाण मानना होगा। यह स्वसंवेदन ज्ञान ही सब जपों का जप है, तपों का तप है, व्रतों का व्रत है और सिद्धिदायक है। (१७) द्यानतराय द्यानतराय का जन्म सं० १७३३ में आगरा में हुआ था। आपके पूर्वज हिसार के रहने वाले थे। आपके पितामह का नाम वीरदास और पिता का नाम श्यामदास था । सं० १७४६ में आपने विहारीदास और मानसिंह के शिष्य के रूप में अध्ययन प्रारम्भ किया। ऐसा प्रतीत होता है कि बनारसीदास के समान आप भी युवावस्था में अंनग रंग में फंसकर आचरणहीन हो गए थे, वाद को सं० १७७५ में माता के उपदेश से ठीक रास्ते पर आए। सं० १७७७ में आपने शिखर समेद जी की यात्रा की थी। द्यानतराय ने चार मुगल बादशाहों-औरंगजेब (सं० १७१५-१७६४), वहादशाह (सं० १७६४-१७६९), फर्रु खसियर (सं० १७७०-१७७६) और मुहम्मदशाह (सं० १७७६-१८०५) का शासन निकट से देखा था। उनके द्वारा किए गए अत्याचारों का भी आपने उल्लेख किया है। लेकिन मुहम्मदशाह के शासन की प्रशंसा की है। इससे विदित होता है कि आपने उसके शासन के १. सिव साधन को जानिये, अनुभौ बड़ो इलाज । मूढ़ सलिल मंजन करत, सरत न एको काज ॥५॥ ठौर ठौर सोधत फिरत, काहे अन्ध अवैव । तेरे ही घट में बसे, सदा निरंजन देव ॥२५॥ सिव मुख कारनि करत सठ, जप तप विरत विधान । कम्म निजरा करन को, सोहं सबद प्रमान ॥५६॥ २. अकबर जहाँगीर साह जहाँ भए वहु, लोक में सराहे हम एक नाहि पेखा है। अबरंगशाह बहादुरसाह फेजदीन, फरकसेर में जेजिया दुःख विसेखा है । द्यानत कहां लग बड़ाई करै साहब की, जिन पातसाहन को पातसाह लेखा है। जाके राज ईत भीत बिना सब लोग सुखी, बड़ा पातसाह महंमदसाह देखा है।॥४६।। (धमविलास, पृ० २६०)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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