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________________ तृतीय अध्याय क्षेत्र श्री महावीर जो (जयपुर) नामक संस्था के कार्यकर्ता श्री कस्न रचन्द कासलीवाल ने आपके १२ ग्रन्थों की सूची दी है। इसमें 'परमात्मप्रकाश की हिन्दी गद्य टीका और रोहिनो अत कथा भी सम्मिलित है। प्रारकी एक अन्य नई रचना 'उपदेश योहा शतक बोलियों के मन्दिर जयपुर से प्राप्त हुई है। इसकी एक अन्य हस्तलिखित प्रति बधीचन्द मन्दिर (जयपुर) के शास्त्र भांडार में गुटका नं०१७ में सुरक्षित है। ___'उपदेश दोहा शतक' की रचना मं० १७.५ में हुई थी। यह १०१ दोहा छन्दों में लिखा गया अध्यात्म विषय प्रधान ग्रन्थ है। इससे यह भी पता चलता है कि पांडे हेनराज मांगानेर (जयपुर में पैदा हा थे और बाद में 'कामागढ़ में जाकर रहने लगे थे, जहाँ तिनिह नामक नरेश शासन कर रहे थे : 'उतनी सांगानेरि को, अव कामागढ़ वास । तहाँ हेम दोहा रचे, स्वपर बुद्धि परकास III कामागढ़ सु वस जहाँ, कीरतिसिंघ नरेस । अपनी खग बलि बस किए, दुर्जन जिनेक देस ll सत्रह सै र पचीस को, बरनै संवत सार । कातिक सुदि तिथि पंचमी, पूरव भयो विचार ॥१०॥ एक आगरे एक सौ, कीए दोहा छन्द। जो हित दै बांचै पढे, ता उरि बढ़े अनंद ॥१०॥ पांडे जी की चार रचनाओं में ही रचना सम्बत् दिया गया है। प्रवचनसार की की टीका सं०१७०९ में लिली गई, नयचर की वनिका सं० १७२४ में और उपदेश दोहा शतक सं० १७२५ में लिखा गया। रोहिणीवन कथा की रचना सं० १७४२ में हई। इससे आपके सं० १७०९ से १७४२ तक के रचनाकाल का पता चलता है। इसके पूर्व उन्होंने कब काव्य रचना प्रारम्भ की और आपकी अन्तिम रचना कब लिखी गई, यह अज्ञात है। पांडे जी निविवाद रूप से हिन्दी साहित्य के अच्छे गद्य लेखक हो गए हैं। १५वीं शताब्दी के आरम्भ की गद्य रचनाएँ, हिन्दी गद्य के विकास की महत्वपूर्ण कड़ी हैं। किन्तु ऐने महत्वपूर्ण गद्य लेखक को हिन्दी साहित्य के इतिहास में कोई स्थान प्राप्त नहीं हुआ। आपके गद्य का नमूना इस प्रकार है : _ 'जो जीव मुनि हुवा चाहै है सो प्रथम ही कुटुम्ब लोक कों पूछि आपकौं छटावै है वन्धु लोगनि सौं इस प्रकार कहै है-अहो इस जन के शरीर के तुम भाई बन्धु हौं, इस जन का आत्मा, तुम्हरा नाहीं, यौ तुम निश्चय करि जानौ।' (प्रवचनसार टीका) १. देखर-अनेकान्त, वर्ष १४, किरण १० (मई १६५७) में कासलीवाल जी का लेख 'राजस्थान के जैन शास्त्र भांडारों से हिन्दी के नए साहित्य की खोज', पृ० २६१ । २. मिश्रबन्धु विनोद में सूचना मात्र दी गई है।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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