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________________ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद निकलता है कि जब कभी भैया भगवतीदाम ने 'रसिक प्रिया' देखा होगा, तो उन्हें रीतिकाल के बढ़ते हुए शृङ्गार से ग्लानि हुई होगी और उन्होंने यह पद लिख डाला होगा | वस्तुत: यह पद ऐतिहासिक तथ्य को इतना अधिक स्पष्ट नहीं करता है, जितना कि तत्कालीन काव्य की पतनोन्मुखी प्रवृति को | आपके समकालीन प्रसिद्ध सन्त सुन्दरदास (सं० १६५३ - १७४६ ) को भी 'रसिकप्रिया' की स्थूलशृङ्गारिकता को देखकर क्षोभ हुआ था और उन्होंने भी इसी प्रकार उसकी निन्दा की थी : ११६ 'रसिकप्रिया' 'रसमंजरी' और 'सिंगार' हि जानि । चतुराई कर बहुत विधि विषै बनाई आंनि ॥ वि बनायी आनि लगत विपियन कौं प्यारी । जागै मदन प्रचण्ड सरा हैं नखशिख नारी ॥ ज्यौं रोगी मिष्ठान्न खाइ रोगहि विस्तारै । सुन्दर यह गति होइ जु तौ 'रसिकप्रिया' धारै ॥ १ ॥ ( सन्त सुधा सार सं० श्री वियोगी हरि, पृ० ६२० ) अतएव श्रन्तः साक्ष्य के आधार पर भैया भगवतीदास जी के जीवन का विस्तृत परिचय नहीं मिलता । हाँ, केवल यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आपने जब सं० १३३१ में काव्य रचना प्रारम्भ की होगी, तब आपकी आयु कम से कम २०-२५ वर्ष की अवश्य रही होगी और रचना पूर्ण (सं० १७५५ ) करने के पश्चात् २-४ वर्ष अवश्य जीवित रहे होंगे । इस प्रकार आपका जन्म सं० १७०६ और १७१० के बीच हुआ तथा आप सं० १७६० के नहीं रहे होंगे। पश्चात् जीवित काव्यगत विशेषताएँ : भैया भगवतीदास एक प्रतिभाशाली कवि थे । आप 'भैया' नाम से कविता करते थे । इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं पर 'भाविक " उपनाम का भी प्रयोग मिलता है । आपके काव्य ग्रन्थ के अध्ययन से पता चलता है कि आपने न केवल जैन समाज में प्रवर्तित अध्यात्म परम्परा का पोषण ही किया, अपितु अपनी मौलिक उद्भावना गक्ति और काव्य प्रतिभा से उसका उन्नयन और विकास भी किया । जैन रहस्यवाद के मूलभूत सिद्धान्तों- आत्मा का स्वरूप और उसके भेद, मोक्ष प्राप्ति के उपाय, संसार की क्षणभंगुरता, बाह्याचार की सारहीनता आदि पर विचार किया ही, रूपक शैली और पौराणिक आख्यान का सहारा लेकर आत्मतत्व की विवेचना भी की। 'चंतन कर्म चरित्र' में युद्ध का रूपक आपकी कवित्व शक्ति का परिचायक है । चेतन जीव अनादिकाल से कर्मवश मिथ्यात्व की नींद में सोता रहा है । १. देखिए - ब्रह्मविलास - पृ० २ (पद २), १० ५४ (पद २), पृ० ७३ (पद १७६) । विलास - चेतन कर्म चरित्र, पृ० ५५ से ८४ तक २.
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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