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________________ तृतीय अध्याय जब वह भवजाल काटकर सम्यक् दृष्टि में अपने चदिक जड़ नत्वों (पदगल) को देखता है तो उनके विषय में जानकारी प्राप्त करने हेतु वृद्धि मे प्रश्न करता है। प्रियतमा मूवुद्धि उसे बताती है कि ये (पदगल । उसके दात्र हैं, जिन्होंने उसे (जीव को) अनादि काल मे भ्रम में डाल रकवा है। अब उसे सचेत हो जाना चाहिए। मुबुद्धि के इस कथन को सुनकर उनका सपन्नी वृद्धि रुष्ट हो जाती है और अपने पिता 'मोह' के घर जाकर अपनी उपेक्षित अवस्था की सुचना देती है, जिसे सुनकर मोह क्रोधाविष्ट होकर अपने दूत 'काम' को आज्ञा देता है कि वह जाकर चेतन जीव को उसकी अधीनता स्वीकार करने के लिए कहे। काम के संदेश को जीव करा देता है। फलन: दोनों ओर से युद्ध की तेयारी प्रारम्भ हो जाती है। मोह अपने बलिप्ट मेनापतियों और चार मंत्रियों को एकत्र कर जीव पर आक्रमण करने का आदेश दे देता है। उसके मंत्री राग-द्वेप और वीर सरदार-ज्ञानावरण, दर्गनावरण, वेदनी, ग्रायू कर्म, नाम कर्म, अंतराय आदि अपनी अपनी सेनाएँ ले कर जीव पर आक्रमण कर देते हैं। चेतन जीव भी आक्रमण की सूचना पाकर अपने मंत्री (ज्ञान) से परामर्ग करता है। मंत्री तत्काल सेनानायकों को बुलाकर आक्रान्ता को दंड देने का आदेश देता है। फलत: स्वभाव, सुध्यान, चरित्र, विवेक, संवग, समभाव, संतोष, सत्य. उपशम, दर्शन, दान, शील, तप आदि सेनापति अपने-अपने सैनिकों के साथ मोह की सेना का सामना करने के लिये उद्यत होते हैं। दोनों ओर से भयंकर युद्ध प्रारम्भ हो जाता है। दोनों दल एक दुसरे का संहार करने के लिए परा प्रयत्न करते हैं। किन्तु अंत में चेतन जीव) की विजय होती है। मोह वलहीन होकर इधर उधर छिपता फिरता है : मोह भयो बलहीन, छिप्यो छिप्यो जित तित रहै। चेतन महाप्रवीन, सावधान है चलत है॥५२॥ (ब्रा०, पृ.८०) इस युद्ध रूपक में जहाँ एक और कवि ने जीव के स्वरूप, उसकी मक्ति के उपाय, उसके शत्रु-मित्र पर प्रकाश डाला है, वहाँ दूसरी ओर युद्ध का भी सजीव वर्णन किया है। इस रूपक में दृष्टव्य यह है कि कवि ने युद्ध वर्णन और वीर रस के अनुकूल ही ओज गुण और मरहठा, करिखा आदि छन्दों को अपनाया है। जैसे : मरहठा छन्द बज्जहिं रण तूरे, दल बहु पूरे, चेतन गुण गावंत । सूरा तन जग्गो, कोउ न भग्गो, अरि दल पै धावंत ॥ १. दै धौंसा सब चढ़े, जहाँ चेतन बसे । श्रार पुर के पास, न अागे को धसै ॥ ४३।। (पृ.५६)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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