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________________ तृतीय अध्याय बड़ी नीत लघु नीत करन है, बाय सरन बदबोय भरी। फोड़ा बहुत फुनगणो मंडित, सकल देह मनु रोग दरी॥ शोणित हाड़ मांसमय मरत, तापर रीझत घरी घरी। ऐसी नारि निरखिकरि केशव रसिक प्रिया' तुम कहा करी ॥१६॥ इस पद के नीचे एक टिप्पणी लिन्त्री हुई है कि "दन्तकथा में प्रसिद्ध है कि केशवदास जी कवि जो किमीत्री पर मोहित थे. उन्होंने उसके प्रसन्नतार्थ 'रमिक प्रिया' नामक ग्रन्थ बनाया। वह ग्रन्थ समालोचनार्थ भैया भगवतीदास जी के पास भेजा, तो उमकी समालोचना में यह कविन नमिक्रप्रिया के पृष्ठ पर लिखकर वापिस भेज दिया था।" उक्त पद के आधार पर ही थी कामता प्रसाद जैन ने भैया भगवतीदास को केशवदास का समकालीन मानते हुए लिखा है कि 'कविवर भगवतीदास जी के समय में रीतिकालीन आदि कवि केदावदाम विद्यमान थे। रसिकप्रिया की रचना कातिक सूदी सप्तमी चन्द्रवार सम्वत् १६४८ वि० को हुई थी। इससे उक्त 'दन्तकथा और कामता प्रसाद जी का मत सही नहीं प्रतीत होते, क्योंकि यदि ३६ वर्षीय केशवदाम ने नम्बत् १६४८ में रसिकप्रिया को सम्मत्यर्थ भैया भगवतीदास के पास भेजा होगा तो उस समय 'भैया' जी की अवस्था कम से कम ३० वर्ष से ऊपर अवश्य होनी चाहिए। ब्रह्मविलास का संग्रह सं० १७५५ में हुआ था। इस प्रकार इस ग्रन्थ के पूर्ण होने तक कवि की आयु १३७ वर्ष से भी अधिक पहुंच जाती है, जो अधिक विश्वसनीय नहीं प्रतीत होती। आपको सं०१७३१ के पूर्व की कोई रचना भी नहीं मिलती। अत: यह प्रश्न भो उठता है कि क्या आपने ११३ वर्ष की आयु तक कुछ लिखा ही नहीं? प्राचार्य केशवदास का मृत्यू सं० १६७४ माना जाता है। अतएव उक्त किवदन्ती किसी भी प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से सत्य नहीं सिद्ध होती। दन्तकथा में यह भी कहा गया है कि केशवदास ने रसिकप्रिया की रचना किसी स्त्री को प्रसन्न करने के लिए की थी। किन्तु इस कथन में भी सार नहीं प्रतीत होता, क्योंकि 'रसिक प्रिया' की रचना केशवदास के आश्रयदाता ओड़छाधीश मधुकरशाह के पूत्र इन्द्रजीत सिंह के प्रीत्यर्थ उन्हीं की आज्ञा से की गई थी. न कि किसी स्त्री को प्रसन्न करने के लिए। अतएव उक्त पद से इतना ही निष्कर्ष १. ब्रह्मविलास, पृ० १८४। २. कामता प्रसाद जैन - हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहास, पृ० १४५ । ३. संवत सोरह से बरस बोते अड़तालीस | कातिक नुदि तिथि सप्तमी, बार बरन रजनीस ।।११।। अति रति गति मति एक करि, विविध विवेक विलास । रसिकन को रमिकप्रिया, कीन्ही केशवदास [ १२॥ (रसिकप्रिया, पृ० ११) इन्द्रजीत ताको अनुज, सकल धर्म को धाम । तिन कवि केशवदास सों कीन्दो धर्म सनेहु । सब मुख दै करि यों कहयो, रसिकप्रिय करि देहु ।।१०।। (डा. हीरालाल दीक्षित-आचार्य केशवदास, पृ०६० से उद्धृत)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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