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________________ ११२ अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद आपने जहाँ एक ओर संस्कृत ग्रन्थों की प्रभूत मात्रा में रचना की, वहाँ दूसरी ओर हिन्दी में भी अनेक ग्रन्थों की रचना की। राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज में आपकी कई रचनाएँ प्राप्त हुई हैं, जिससे आपके हिन्दी अनुराग और ज्ञान का पता चलता है। आपकी ऐसी छः रचनाएँ मुझे देखने को मिली हैं। ये रचनाएं निम्नलिखित हैं : (१) समाधितन्त्र, (२) श्रीपालरास, (३) गीतसंग्रह, (४) इग्यारह अंग स्वाध्याय, (५) समतागतक, (६) दिगपट खंडन । __'समाधितन्त्र' उच्च कोटि का रहस्यवादी काव्य है। इसमें १०५ दोहा छन्द हैं। इसकी एक हस्तलिखित प्रति सरस्वती भांडार ( मेवाड़) में सुरक्षित है। इसमें रचनाकाल नहीं दिया गया है। लिपिकाल सं० १८८१ है। हम पहले ही कह चुके हैं कि वह आनन्दघन से काफी प्रभावित थे और उसी प्रकार की साधना में स्वयं भी लीन रहते थे। एक स्थान पर वह कहते हैं कि वाह्याचरण से कोई लाभ नहीं, आत्मवोध ही शिव पन्थ पर ले जाने में सक्षम है : 'केवल आतम वोध है परमारथ शिव पंथ । तामें जिनको ममनता, सोई भावनि यंथ ॥२॥ 'समाधितन्त्र' में रहस्यवादी भावनाओं की प्रचुरता के कारण और यशोविजय का अधिक परिचय न प्राप्त हो सकने के कारण श्री मोतीलाल मेनारिया ने अनुमान लगाया कि ये कोई निरंजनी साधु प्रतीत होते हैं।' 'समाधितन्त्र' के अंतिम दोहों में कवि और रचना का नामोल्लेख हुआ है : दोधक सत के ऊपरयौ, तन्त्र समाधि विचार । धरो एह बुध कंठ में, भाव रतन को हार ॥१०२॥ ज्ञान विमान चरित्रय, नन्दन सहज समाधि । मुनि सुरपती समता शची, रंग रमे अगाधि ॥१०३॥ कवि जस विजय ए रचे, दोधक सतक प्रमाण । एइ भाव जो मन धरे, सो पावे कल्याण ॥१०४॥ मति सर्वग समुद्र है स्यादवाद नय युद्ध । पडदर्शन नदीयां कही, जांणो निश्चय बुद्ध ॥१०॥ 'श्रीपालराम' आपकी दूसरी रचना है। इसमें चार खण्ड हैं, जिनमें प्रथम दो विनयविजय तथा अन्तिम दो यशोविजय कृत हैं। इसका रचना काल सं० १७३८ है। इसकी एक हस्तलिखित प्रति 'वर्द्धमान ज्ञान मंदिर, उदयपुर' में सुरक्षित है। आपकी तीमरी रचना 'इग्यारह अंग स्वाध्याय' है। इसमें ७५ पद्य हैं। इसका रचना काल सं० १७२२ है। इसका विषय जैन धर्म वार्ता है। १. मोतीलाल मेनारिया-राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज (प्रथम भाग) पृ० १६८ । २. उदयसिंह भटनागर-राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज, (तृतीय भाग) पृ० ११२-१३ ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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