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________________ तृतीय अध्याय और चपल मन का विश्वास न करके वह प्रयत्न कर, जिससे तू अपने उद्देश्य में सफल हो सके । आशाओं का हनन करने से, योग की साधना से. 'अजपा जाप' को जगाने से ही 'निरंजन' की प्राप्ति सम्भव है।' ___आनन्दघन एक ऐसे साधक प्रतीत होते हैं जो अनुभूति में ही विश्वास करते हैं और स्वसंवेदन ज्ञान को ही महत्व देने हैं। पाप में कोई पूर्वाग्रह नहीं है। जैन होते हुए भी अनेक बातें ऐसी भी कह जाते है जो जैन मत में मान्य नहीं हैं या उसके प्रतिकूल हैं। वस्तुत: सच्चा साधक किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के बन्धन में बंधा नहीं रह सकता। उसका तो एक अपना धर्म होता है। वह किसी का अनुगामी नहीं होता, अनुगामियों की मृष्टि करता है। कबीर इसी कोटि के साधक थे और आनन्दघन पर भी यह मत्य लागू होता है। (१४) यशोविजय श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध मूनि यगोविजय आनन्दघन के समकालीन थे। कहा जाता है कि वह काफी समय तक आनन्दघन के साथ मेड़ता नामक स्थान में रहे थे। वह आनन्दघन की साधना से काफी प्रभावित थे और उनकी प्रशस्ति में 'प्रानन्दघन अष्टपदी' की रचना की थी। यह आठ पदों की लघुकाय रचना कविता की दृष्टि से काफी अच्छी है। प्राचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसको 'घनानन्द और अानन्दघन' के साथ ही प्रकाशित किया है। श्री नाथूराम प्रेमी ने आपका जन्म सं० १६८० बताया है। आपकी मृत्यु सं० १७४५ में हुई थी। बड़ौदा के अन्तर्गत 'दमोई' नगर में आपकी समाधि बनी हुई है। इस पर लिखा है कि सं० १७४५ के मार्गशीर्ष मास की शुक्ला एकादशी को उनका देहावसान हुआ। यशोविजय संस्कृत ग्रन्थों के रचयिता के रूप में काफी प्रसिद्ध रहे हैं। प्रेमी जी के अनुसार आपने संस्कृत में लगभग ५०० ग्रन्थों की रचना की। इनमें से अधिकांश उपलब्ध हैं। कुछ तो प्रकाशित भी हो चुके हैं। प्रकाशित ग्रन्थों में अध्यात्म परीक्षा, अध्यात्मसार, नयरहस्य, ज्ञानसार आदि काफी महत्वपूर्ण हैं।' अवधू क्या सोवै तन मट में, जाग बिलोक न घट में । तन मन की परतीत न कीजै, दहि परै एकै पल में । आसा मारि अासन धरि घट में, अजपा जाप जगावै । अानन्दघन चेतनमय मूरति, नाथ निरंजन पावै।। (घनानन्द और आनन्दवन, पद ७, पृ० ३५८) २. श्री नाथूराम प्रेमी-हिन्दी जैन साहित्य का इतिहास, पृ० ६२। ३. देखिए-इरि दामोदर वेलनकर, जिन रत्नकोश (पृ०६, १४६ और २०४)
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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