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________________ प और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद हुए है। इनमें भी कर्ता का नाम केवल 'रूपचन्द' ही दिया हुआ है । यदि रूपचन्द. 'पाण्डे रूपचन्द' होते तो कवि ने जहाँ जहाँ पर अपना नामोल्लेख किया है, उसमें कहीं न कहीं 'पाण्डे' का भी प्रयोग करता ग्रथवा कम से कम किसी लिपिकार ने उनके नाम के पूर्व 'पांडे' शब्द का प्रयोग अवश्य किया होता । ६४ '' अथवा 'केवलज्ञान कल्याणचर्चा 'पांडे रूपचन्द' की रचना है, क्योंकि इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में कवि ने जो अपना परिचय दिया है, उसमें 'पांडे' शब्द का उल्लेख है । वहुत सम्भव है कि पांडे रूपचन्द ने संस्कृत में ही ग्रन्थों की रचना की हो और 'श्रावक प्रायश्चित' तथा 'शीलकल्याणकोद्यान' भी पांडे रूपचन्द की ही रचनाएँ हों । बनारसीदास के 'नाटक समयसार' के टीकाकार 'रूपचन्द' से समस्या और भी उलझ जाती है। इस टीका का रचनकाल सं० १७९८ बताया गया है । दिसम्बर सन् १८७६ में भीमसी मणिक ने 'प्रकरण रत्नाकर' के दूसरे भाग में बनारसीदास के 'समयसार नाटक' को गुजराती टीका सहित प्रकाशित किया था । उसके प्रारम्भ में लिखा है कि "इन ग्रन्थ की व्याख्या कोई रूपचन्द नामक पंडित ने की है, जो हिन्दुस्तानी भाषा में होने के कारण सबकी समझ में नहीं आ सकती। इसलिए उसका आश्रय लेकर हमने गुजराती में व्याख्या की है ।" व्याख्याकर्ता ने आदि में यह मंगलाचरण दिया है। : "श्री जिन बचन समुद्र कौ, कौं लगि होइ बखान । रूपचन्द तौहू लिखे, अपनी मति अनुमान ॥" श्री नाथूराम प्रेमी का अनुमान है कि यह टीका 'बनारसीदास' के साथी रूपचन्द की होगी, गुरु रूपचन्द की नहीं।' 'नाटक समयसार' के टीकाकार का बनारसीदास का समकालीन होना सम्भव नहीं है, क्योंकि बनारसीदास के समय और ग्रन्थ के टीकाकाल में काफी अन्तर पड़ जाता है । बनारसीदास का समय सं० १६४३ से सं० १७०१ तक माना जाता है । वनारसीदास के साथी रूपचन्द, उनके समवयस्क अथवा अधिक से अधिक श्रायु में दस पाँच वर्ष ही छोटे होंगे । इस प्रकार सं० १७०१ में रूपचन्द की आयु ५० वर्ष से कम नहीं रही होगी (बनारसीदाम उस समय ५८ वर्ष के थे । ) यदि इस सम्भावना को सत्य मान लिया जाय तो 'नाटक समयसार' की टीका के समय उनकी आयु १४७ वर्ष की हो जाती है । रूपचन्द इतने अधिक वर्ष जीवित रहे होंगे, इस पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता । श्री अगरचन्द नाहटा ने अपने लेख 'समयसार के टीकाकार विद्वद्वर रूपचन्द" में टीकाकार का जो विस्तृत परिचय दिया है, उससे तीसरे रूपचन्द महोपाध्याय रूपचन्द का अस्तित्व प्रकाश में आया है । ये रूपचन्द बनारसीदास १. देखिए, बनारस दास - अर्धकथानक की परिशिष्ट, पृ०७६ २. देखिए, अनेकान्त वर्ष १२, किरण ७, दिसम्बर १६५३, पृ० २२८ से २३० तक ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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