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________________ तृतीय अध्याय धर्मदास ये पंचजन, मिलि वेसें इक ठौर । परमारण चरचा करें, इनके कथा न और ॥ १२ ॥ ६३ श्री नाथूराम जी प्रेमा ने भी रूपचन्द को पाण्डे रूपचन्द से भिन्न माना है । बनारसीदास के 'अर्धकथानक' की परिशिष्ट में आपने लिखा है कि 'पाण्डे रूपचन्द और पं० रूपचन्द नाम के दो विद्वानों का पता चलता है । जिनमें से एक तो वे हैं, जिनका बनारसीदास जी ने अपने गुरू के रूप में उल्लेख किया है और जिनके पास उन्होंने गोमटमार का अध्ययन किया था। उन्होंने तिहुना साहु के मन्दिर में आकर डेरा लिया था, इससे भी इस अनुमान की पुष्टि होती है । दूसरे रूपचन्द का उल्लेख बनारसीदास ने अपने नाटक समयसार' में अपने पाँच साथियों में से एक के रूप में किया है, जिनके साथ वे निरन्तर परमार्थ की चर्चा किया करते थे ।" पांडे रूपचन्द्र ने कितने ग्रन्थों की रचना की और रूपचन्द कृत कौन-कौन से ग्रन्थ ? इस विषय पर भी काफी भ्रम रहा है। प्रायः एक की रचना को दूसरे की रचना मान लिया गया है । इन रचनायों में कहीं पर रचना काल भी नहीं दिया गया है। इससे कर्ता का विभेद और कठिन हो जाता है। और फिर जिन विद्वानों ने एक ही रूपचन्द के अस्तित्व को स्वीकृति दी, उनके समक्ष कर्ता का प्रश्न ही नहीं उठा । 'जैन हितैषी' में दिगम्बर जैन ग्रन्थ कर्ताओं की सूची प्रकाशित हुई है । उसमें रूपचन्द और उनकी रचनाओं का विवरण इस प्रकार दिया हुआ है। (१) रूपचन्द्र (पंडित ) - श्रावक प्रायश्चित, समवसरणपूजा, शील कल्याणकोद्यान । (२) रूपचन्द पांडे (बनारसीदास के समकालीन) परमार्थीदोहाशतक, गीता परमार्थी (पद जकड़ी) पंचकल्याण मंगल । (३) रूपचन्द (द्वितीय) वनारसीकृत नाटक समयसार की टीका, (सं० १७६८) इस विवरण से यह प्रश्न उठता है कि क्या रूपचन्द नाम के तीन व्यक्ति थे ? और यदि तीन व्यक्ति एक ही नामधारी थे तो उनमें किसने, किस ग्रन्थ की और कब रचना की ? उक्त विवरण में 'रूपचन्द पांडे' के नाम से जो पुस्तकें गिनाई गई हैं, वह सही नही हैं, क्योंकि परमार्थीदोहा शतक, गीत परमार्थी और पंच कल्याण मंगल की जो हस्तलिखित प्रतियाँ प्राप्त हुई हैं, उसमें कर्ता का नाम केवल 'रूपचन्द' दिया हुआ है । 'पांडे' शब्द का उल्लेख कहीं नहीं है । इन ग्रन्थों के अतिरिक्त 'अध्यात्म सवैया' 'खटोलना गीत' तथा कुछ फुटकर पद और प्राप्त १. बनारसीदास - श्रध कथानक, पृ० ७८ । २. जैन हितैषी - सं० श्री नाथूराम प्रेमी, प्र० श्री जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय; हीराबाग, पो० गिरगाँव, बम्बई । अंक ५६, पृ० ५५ और अंक ७/८ पृ० ४६ ( फाल्गुन — चैत्र, वीर नि० सं० २४३६) ( वैशाख - ज्येष्ठ, वी० नि० सं० २४३६ ) ।
SR No.010154
Book TitleApbhramsa aur Hindia me Jain Rahasyavada
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudev Sinh
PublisherSamkalin Prakashan Varanasi
Publication Year
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size60 MB
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